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अनुवाद तथा विविध टीकाओं, वृत्तियों, व्याख्याओं, पंजिकाओं आदि को लेकर कुल मिलाकर 161 से भी अधिक ग्रन्थ लिखे गये और सम्भवत: सहस्रों की संख्या में उनकी पाण्डुलिपियाँ तैयार की गईं। उनकी प्रतिलिपियाँ केवल देवनागरी-लिपि में ही नहीं, बल्कि बंग, उड़िया, शारदा में भी उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त भी तिब्बत, नेपाल, भूटान, गन्धार (अफगानिस्तान), सिंहल एवं बर्मा के पाठ्यक्रमों में वह प्राचीनकाल से ही अनिवार्य रूप में स्वीकृत रहा है। अत: वहाँ की स्थानीय सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए समय-समय पर तिब्बती-भाषा में इसकी लगभग 12 तथा भोट-भाषा में 23 टीकायें लिखी गईं, जो वर्तमान में भी वहाँ की लिपियों में उपलब्ध हैं। मध्यकालीन मंगोलियाई, बर्मीज, सिंघली एवं पश्तों में भी उसकी टीकायें आदि सम्भावित हैं। पूर्वोक्त उपलब्ध पाण्डुलिपियों तथा उनका संक्षिप्त विवरण स्थानाभाव के कारण यहाँ नहीं दिया जा रहा है। ___ अपने पाठकों की जानकारी के लिए यह भी बताना चाहता हूँ कि भारतीय प्राच्यविद्या के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० रघुवीर ने 1950 से 1960 के दशक में तिब्बत, चीन, मंगोलिया, साइबेरिया, इंडोनेशिया, लाओस, कम्बोडिया, थाईलैंड, बर्मा आदि देशा की सारस्वत यात्रा की थी तथा वहाँ उन्होंने सहस्रों की संख्या में प्राच्य भारतीय पाण्डुलिपियाँ देखी थीं। वे सभी भोजपत्रों, ताड़पत्रों, स्वर्णपत्रों एवं कर्गलपत्रों पर अंकित थी। उनमें से उनके अनुसार लगभग 30 सहस्र पाण्डुलिपियाँ अकेले तिब्बत में ही सुरक्षित थीं। यह सर्वविदित ही है कि आचार्य जिनसेन के शिष्य तथा राष्ट्रकूटवंशी नरेश अमोघवर्ष की 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' की पाण्डुलिपि तिब्बत से ही तिब्बती अनुवाद के साथ तिब्बती लिपि में प्राप्त हुई थी। अपनी यात्राओं के क्रम में वे उक्त सभी देशों से लगभग 60 हजार , पाण्डुलिपियाँ अपने साथ भारत ले आये थे तथा जो नहीं ला सकते थे, उनकी माइक्रोफिल्मिंग कराकर ले आये थे। जापान की भारतीय पाण्डुलिपियों की लिपि 'सिद्धम्' के नाम से प्रसिद्ध है, जो देवनागरी के समकक्ष होती है। डॉ० रघुवीर के अनुसार लगभग 6000 भारतीय ग्रन्थों का अनुवाद मंगोल-भाषा में किया गया था। ___ बहुत सम्भव है कि उनमें भी 'कातन्त्र व्याकरण'-सम्बन्धी विविध ग्रन्थ रहे हों? जैसाकि पूर्व में कह आया हूँ कि जो विदेशी पर्यटक भारत आये, वे अपने साथ सहस्रों की संख्या में संस्कृत-प्राकृत की पाण्डुलिपियाँ लेते गये। उनमें से अनेक तो नष्ट हो गई होंगी, बाकी जो भी बचीं, वे विश्व के कोने-कोने में सुरक्षित हैं। हम जिन ग्रन्थों को लुप्त या नष्ट घोषित कर चुके हैं, बहुत संभव है कि वे विदेशों में अभी भी सुरक्षित हों। उक्त पाण्डुलिपियों में कातन्त्र-व्याकरण के भी विविध अनुवाद, टीकायें एवं वृत्तियाँ आदि सम्भावित हैं, जि .की खोज करने की तत्काल आवश्यकता है।
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जब आधुनिक जैन पण्डित-परम्परा की प्रथम सीढ़ी का उदय हुआ, तब उसमें कातन्त्र-व्याकरण को पढ़ाए जाने की परम्परा थी। जैन-पाठशालाओं
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000