Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 41
________________ कवि भर्तृहरि ने तो दिगम्बर श्रमण बनने की ही भावना स्पष्टरूप से व्यक्त कर दी है:- "एकाकी निस्पृहः शान्त: पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदा शम्भो ! भविष्यामि कर्म-निर्मूलन-क्षमः ।।" – (वैराग्यशतक, 89) अर्थः हे शम्भु (शिव) ! मैं समस्त कर्मों को निर्मूल (नष्ट) करने में सक्षम एकाकी, निराकांक्षी, शान्तचित्त, करतलभोजी दिगम्बर श्रमण कब बन पाऊँगा? । ध्यातव्य है कि ये सभी विशेषण निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन श्रमणों के हैं। अत: प्रतीत होता है कि इन्हीं विशेषताओं के कारण ही इन जैनेतर-विद्वानों ने जैनश्रमणों एवं श्रामण्य के प्रति इतना आदर/बहुमान व्यक्त किया है। जैनश्रमणों की इन्हीं असाधारण विशेषताओं के कारण ‘भागवत' के कर्ता ने उनकी उत्कृष्ट स्थिति भी स्वीकार की है "मुनीनां न्यस्तदंडानां शान्तानां समचेतसाम्। अकिंचनानां साधूनां यमाहुः परमां गतिम् ।।" – (भागवत, 10/89/17) अर्थ:—मन-वचन-काय इन तीनों दंडों को अनुशासित (मर्यादित) रखनेवाले, शान्तस्वभावी, समताभावी, अपरिग्रही साधु, जिन्हें 'मुनि' भी कहा जाता है, की उत्कृष्ट गति होती है। अर्थात् इनकी भविष्य में नियमत: सद्गति ही होती है। आज के परिप्रेक्ष्य में हम विचार करें कि आज के श्रमणों में वे गुण किस स्थिति में हैं, जिनके कारण वे सर्वत्र बहुमानित होते थे? __क्या कारण था कि भरतमुनि जैसे महामनीषी को निर्देश देना पड़ा कि निर्ग्रन्थ मुनि के साथ 'भदन्त' (भगवान्) संबोधनपूर्वक अत्यन्त आदर के साथ संभाषण करना चाहिये- “निर्ग्रन्था भदन्तेति प्रयोक्तृभिः।" – (नाट्यशास्त्रम्, 17/7) __इतिहास साक्षी है कि जैनश्रमण न केवल चारित्रिक-साधना, अपितु ज्ञानगौरव के कारण भी सदैव प्रेरणास्रोत रहे हैं। यदि ऐसा न होता, तो अनेकों जैनेतर मनीषी जैन-परम्परा में श्रमणदीक्षा लेकर श्रामण्य की गौरववृद्धि नहीं करते। आचार्य विद्यानन्दि स्वामी (8वीं शता० ई०) जैसे महान् आचार्य ऐसे ही श्रमणों की श्रेणी में आते हैं। ___ ज्ञान की ऐसी उत्कृष्ट गरिमा यों ही प्रकट नहीं हुई थी। अपितु श्रमण-परम्परा के साधक आगमग्रन्थों का विधिवत् सूक्ष्म अध्ययन करके ही इस गरिमा के योग्य बन सके थे। यह उनका अनिवार्य कर्तव्य था। सुप्रसिद्ध निर्ग्रन्थाचार्य शिवार्य इस बारे में लिखते हैं:"कंठगदे वि पाणे हि, साहुणा आगमो हि कादव्वो।" ---(भगवती आराधना, 153) अर्थात् प्राण कण्ठ में आ बसे हों - ऐसा भीषण संकट उपस्थित हो जाये; तो भी साधुओं (निर्ग्रन्थ दिगम्बर श्रमणों) को आगमग्रन्थों का स्वाध्याय ही करना चाहिये। __ जैनश्रमण अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोगी होते थे। इसी बात की पुष्टि इस पद्य से होती है "परं पलितकायेन कर्तव्य: श्रुतसंग्रहः । न तत्र धनिनो यान्ति यत्र बहुश्रुताः।।" प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 00 39

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