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आगम - मर्यादा एवं निर्ग्रन्थ श्रमण
- श्रीमती रंजना जैन
आगम-ग्रन्थों में ‘आगमचक्खू साहू' कहकर निर्ग्रन्थ श्रमणों को आगम ( शास्त्र) रूपी चक्षुओं से देखकर श्रामण्यपथ पर अग्रसर होने का निर्देश दिया गया है। किन्तु आज के कतिपय श्रमण तो अपने वचनों व निर्देशों को ही 'आगम' मानकर जैसा व्यवहार कर रहे हैं; उससे सम्पूर्ण समाज चिंतित है। क्योंकि जिस श्रामण्य की प्रतिष्ठा आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द ने अत्यन्तं दृढ़ता पूर्वक की थी, उसकी गरिमा को तो ये मलिन कर ही रहे हैं, साथ ही उसके मूलस्वरूप को भी मनमाने ढंग से व्याख्यायित कर रहे हैं । ऐसी विषम परिस्थितियों में आगम की मर्यादा का बोध कराते हुए साधुचर्या का स्वरूप एवं महिमा विदुषी लेखिका ने सप्रमाण विनम्र शब्दों में मर्यादितरूप से इस आलेख में प्रस्तुत किया है ।
-सम्पादक
प्राचीन भारतीय वाङ्मय में निर्ग्रन्थ श्रमणों का जैसा यशोगान किया गया है, उसे देखकर स्वत: जिज्ञासा होती है कि निर्ग्रन्थ श्रमणों के स्वरूप में ऐसी क्या विशेषता थी, जिसके कारण जैनेतरों ने भी सदा से उनका सबहुमान उल्लेख किया है ? ऐसा नहीं है कि मात्र न्यायग्रंथों में पूर्वपक्ष के रूप में उन्होंने जैनों का उल्लेख किया हो; अपितु उन्होंने अपने सिद्धान्तग्रन्थों एवं तत्त्वज्ञान - प्ररूपक शास्त्रों में भी निर्ग्रन्थ श्रमणों का विशेषरूप अनेकत्र सादर उल्लेख किया है । उदाहरण-स्वरूप 'भागवत' के इस पद्य को देखें:
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“सन्तुष्टाः करुणा: मैत्रा: शान्ता दान्तास्तितिक्षवः । आत्मारामाः समदृश: प्रायशः श्रमणा जनाः । । "
- ( भागवत, 12/3/19) अर्थ:- — श्रमणजन (निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधुजन) सन्तोषी वृत्तिवाले, करुणापूरित हृदयवाले, प्राणीमात्र के साथ मैत्रीभावयुक्त, शान्तपरिणामी, इन्द्रियजयी, आत्मा में ही मग्न रहनेवाले एवं समतादृष्टिमय (समभावी) होते हैं ।
इसमें अनेकों प्रशस्त विशेषणों से न केवल जैनश्रमणों का परिचय दिया गया है, अपितु उन्हें इतने उत्कृष्ट विशेषणपदों से बहुमानित भी किया गया है।
यहाँ तो मात्र आदरभाव व्यक्त करके महिमागान ही किया गया है, किंतु शिवभक्त
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प्राकृतविद्या - जनवरी-मार्च 2000