Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 38
________________ अर्थ:-मिट्टी अर्थात् शरीर के नौ लहरोंवाले राजमहल में बैठकर नीर-क्षीर विवेकवाला यह राजहंस अर्थात् शुद्ध, बुद्ध, प्रबुद्ध एवं चैतन्य-स्वरूप आत्मा अपने ज्योतिर्मय ज्ञान-पुंज से चारों दिशाओं को आलोकित कर रहा है और “मैं वही हूँ, मैं वही हूँ, मैं वही हूँ" अर्थात् 'मैं ही शुद्धात्मा हूँ' –इस सत्य का अमृतनाद सुना रहा है। “कहाँ है अज्ञानरूपी वह अन्धकार, मैं भी तो उसे देखू?" —यह कहता हुआ ज्ञानरूपी प्रकाश का सजग प्रहरी प्रज्ज्वलित वह दीपक घर-घर में, आंगन-आंगन में घूम-घूम कर देह एवं आत्मा की भिन्नतारूपी निश्चयात्मक ज्ञान (भेदविज्ञान) का अलख जगा रहा है। (2) जिसप्रकार प्रज्ज्वलित दीपक अपने प्रकाश से पर-पदार्थों को तो आलोकित करता है, किन्तु उसका स्वयं का तेल तिल-तिल करके जलता रहता है; उसीप्रकार सांसारिक विषय-भोगों की सारहीनता को समझे बिना ही यह मोर अर्थात् कर्मलिप्त जीव भ्रमवश अपने को सुखी मानकर उसी में प्रमुदित रहा करता है और इसीलिये अष्टकर्म अनादिकाल से ही उसके चित्र-विचित्र मलिनरूपों (अर्थात् 84 लाख योनियों में नानारूपों) का प्रदर्शन कराते रहते हैं। ___किन्तु क्षणभंगुर इस शरीर को क्या कोई सुरक्षा दे सकता है? इस नश्वर तन को क्या कोई शाश्वत बना सकता है? मिट्टी के सकोरे अर्थात् शरीर से उड़ते हुए श्रेष्ठ राजहंस अर्थात् शुद्धात्म को क्या कोई आज तक रोक भी सका है? जब तक उसमें आत्मा का निवास है, तभी तक उस शरीर की स्थिति है। हंस अर्थात् आत्मा के उड़ जाने के बाद तो वह मात्र पुद्गल है, जड़ है और वह मिट्टी के फूटे हुए सकोरे के समान निरर्थक है। यद्यपि तेल एवं तूल का ठाठ-बाट नश्वर, सारहीन एवं निरर्थक है; फिर भी यह अज्ञानीजीव भ्रमवश उसमें लिप्त रहकर सुखानुभव करता रहता है। (3) चन्द्रमा की आभा अर्थात् आत्मा पर रात्रि और अन्धकार अर्थात् मिथ्यात्व एवं अज्ञान का आवरण चढ़ा हुआ है; किन्तु अब स्वर्णद्वीप के समान उस आत्मा ने अपने ज्ञानावरणी-कर्म को नष्ट करने के लिये अपने तपरूपी पराक्रम को ज्ञानरूपी विवेक की कसौटी पर कस दिया है और अब वह पूरी तरह से इस संसाररूपी दुर्जेय रणभूमि में अपने कर्मरूपी (ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय) शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिये कटिबद्ध है। कर्मों पर विजय प्राप्त करने में सक्षम आत्मा अपने उपक्रम से वीर-केशरी की भाँति कर्म-निर्जरा से उत्पन्न सौन्दर्यरूपी सिन्दूरी-रंग में स्नात हो गई है। विजय के उस उल्लास के कारण अब आत्म-जागरण के लिये दिन और रात में कोई अन्तर नहीं रहा। निष्कलंक आत्मा के इस रतजगे अर्थात् अहर्निश आध्यात्मिक जागरण की प्रोन्नत दशा में अब राग-द्वेष, काम-क्रोधादि कोई भी किसी भी प्रकार का व्यवधान नहीं डाल सकता है। (4) चार घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर यह शुद्ध आत्मा साधना की एक-एक 0036 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000

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