Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 36
________________ 'हंसदीप' : जैन - रहस्यवाद की एक उत्प्रेरक कविता - प्रो० ( डॉ० ) विद्यावती जैन “सोऽहमित्युपात्त-संस्कारस्तस्मिन् भावनया पुन: । तत्रैव दृद्-संस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम् ।।” — (आ० पूज्यपाद, 'समाधितन्त्र', 28 ) अर्थ: आत्मा की भावना करनेवाला जीव आत्मतत्त्व में स्थित हो जाता है । 'सोऽहं' के जप का यही मर्म है। 'सोऽहं' की भावना साधक - अवस्था की एक उत्कृष्ट भावना है। सभी अध्यात्मवेत्ता आचार्यों ने इसके बारे में अनेकत्र भावप्रवण वर्णन किया है। 'दासोऽहं', 'सोऽहं' एवं 'अहं' के तीन सूत्रों में 'दासोऽहं ' भक्तिमार्ग के वचन हैं, 'सोऽहं' अध्यात्मसाधक की भावना तथा 'अहं' आत्मानुभूति की अवस्था का परिचायक है । भावनाप्रधान 'सोऽहं' के बारे में एक ऊर्जस्वित कविता पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी के द्वारा रचित 'हंसदीप' शीर्षक कविता क गूढ़ आध्यात्मिक रचना है। इसके बारे में अर्थसहित मूलपाठ की प्रस्तुति एक विदुषी लेखिका के द्वारा यहाँ की गयी है । -सम्पादक 'हंस-दीप' कविता आचार्यश्री विद्यानन्द जी की एक रहस्यवादी कविता है । रहस्य - भावना वस्तुत: एक ऐसा आध्यात्मिक साधन है, जिसके माध्यम से तप:भूत साधक स्वानुभूतिपूर्वक आत्मतत्त्व से साक्षात्कार करता है । साधक अपनी भावना के सहारे आध्यात्मिक सत्ता की रहस्यमय गहन अनुभूतियों को वाणी के द्वारा शब्द - चित्रों में रेखांकित कर देता है, तभी रहस्यवाद की सृष्टि होती है । जीवात्मा एक रहस्यमय एवं अनन्त गुणों का भण्डार है इसकी प्राप्ति भेदानुभूति के द्वारा ही संभव है । 1 आचार्यश्री विद्यानन्द जी ने स्वानुभूत अनुभूति का गहराई के साथ चतुर चितेरे की भाँति कल्पनाओं का पुट देते हुए आत्मा और शरीर के भेद - विज्ञान का निरूपण किया है। उसमें शुद्ध आत्म-भावों के अनन्त वैभव के साथ ज्ञान की अखण्ड - व्यापकता भी विद्यमान है। जब भेदानुभूति द्वारा शरीर और आत्मा की पृथक्ता स्पष्ट हो जाती है, तो आत्मा शुद्ध परमतत्त्व में लीन हो जाती है और उसकी स्थिति भोर होने के पूर्व के आकाश के समान सिन्दूरी आभावाली हो जाती है । आचार्यश्री की काव्य-प्रतिभा ने प्रस्तुत रहस्यवादी कविता के हार्द के स्पष्टीकरण के लिए विविध प्रतीकों का आश्रय लिया है। जैसे— आत्मा के लिए 'हंस', शुद्ध ज्ञान के लिये प्राकृतविद्या�जनवरी-मार्च '2000 034

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