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'दीपक', अज्ञान के लिये 'तिमिर' या अन्धकार, शरीर के लिये तेल' और सांसारिक विषय-वासनाओं की सारहीनता के लिए 'तूल' शब्द का प्रयोग किया है। इसीप्रकार आत्मानन्द की अभिव्यंजना के लिए उन्होंने 'अमृत' शब्द का चुनाव किया है। अज्ञान, मिथ्यात्व और राग-द्वेष-मोह के नष्ट हो जाने पर निष्कलंक ज्ञान-कलिका खिल उठती है और आत्मा में 'सोऽहं-सोऽहं', की ध्वनि प्रस्फुटित होने लगती है। इन प्रसंगों में अमृत, दीप और प्रकाश के द्वारा आत्मज्ञान और आत्मानन्द की अभिव्यंजना की गई है।
प्रस्तुत रचना की शैली प्रौढ़, भाषा आलंकारिक, प्रांजल एवं शान्तरस से ओतप्रोत है। मूल कविता एवं उसका अर्थ निम्नप्रकार है
हंस-दीप आचार्यश्री विद्यानन्द जी कृत
(रचनाकाल सन् 1965 के आसपास) मिट्टी के नौमहले बैठा हंस ज्योति फैलाये, "हं सोऽहं, सोऽहं, सोऽहं" का अमृत नाद सुनाये। तिमिर कहाँ, मैं भी तो देखू, दीपक जलता जाये, प्रकाश का प्रहरी घर-आंगन घूमे, अलख जगाये ।। 1।। तिल-तिल जलता तैल, तुल पर मोर मचलते आते, कर्मबंध के अनादि कश्मल अपना रूप दिखाते, दे अंचल को ओट अचंचल कौन करे भंगुर को, कौन रोक लेगा शराव से उड़ते हंसावर को। तैल-तूल का ठाठ अकिंचन सपनों में भरमाये, हं सोऽहं...............
....................... ।। 2।। यह विभावरी, इन्दु-विभा पर लगा आवरण तम का, आज कसौटी पर है विक्रम कनक-दीप लघुतम का। तत्पर होकर प्राण अड़े हैं दुर्जय समर-स्थल में, नहा उठे हैं वीर केसरी आभा की हिंगुल में। सारी रात रतजगा कोई आज न हमें बुझाये, हं सोऽहं.....
........... ।। 3 ।। अंजन-कूट टूटते जाते एक-एक चितवन पर, गौरी के दुर्ललित लास्य साकार हुए कंपन पर। आज चुनौती अंध दनुज की शल्य-शलाकाओं को, आमंत्रण भेजा लघु-लघु दोषों ने राकाओं को। तिमिर-कृष्ण के संग सलोनी राधा रास रचाये, हं सोऽहं.............. ....................... ।। 4।।
प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
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