Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 32
________________ कातन्त्र-व्याकरण और उसकी उपादेयता -डॉ० उदयचन्द्र जैन भाषा का नियामक तत्त्व व्याकरण है। व्याकरण की नियामकता के बिना भाषा प्रवाह गतिमान नहीं हो पाता है और न ही उसके बिना लोक-व्यवहार भी नहीं चल सकता है। मनुष्य के वाग्व्यवहार का स्रोत भाषा है, उसका वचन-व्यवहार है। जिससे सौम्यता प्रतिपादित होती है और विनम्रता भी दिखाई पड़ती है। मनुष्य जब भी बोलेगा, उसमें समान आदर होगा। यदि वक्ता पुरुष है तो “मैं जाता हूँ" ऐसा कथन अपने आप हो जाएगा। यदि बोलनेवाली स्त्री है, तो “मैं जाती हूँ" ऐसा प्रयोग स्वत: ही करेगी, क्योंकि उसका वचन-व्यवहार लोक-व्यवहार से भी जुड़ा हुआ प्रतीत होगा। यही भाषा का प्रवेश जब साहित्य के क्षेत्र में होता है, तब उसमें लोकव्यवहार की अपेक्षा भाषा के नियमन पर विशेष ध्यान दिया जाता है तथा शब्द-सिद्धि के लिए सूत्र-निर्माण कर लिया जाता है, क्योंकि उससे संस्कारित होकर जो भी प्रयोग होगा, वह अपने नियम में बंधी हुई सदैव एकरूपता को धारण करती रहेगी। व्याकरण भाषा का नियमन है। इसलिये भाषाविदों ने उन पर जो नियम बनाये या. सूत्र दिये, वे ही व्याकरण का रूप लेकर भाषा को एक रूप में जोड़ने में समर्थ हुए। जैन या जैनेतर कोई भी भाषाविद को ही क्यों न लें, वह एकरूपता से जुड़ा हुआ ही अपनी भाषा-सम्बन्धी व्यवस्था देता है। उस व्यवस्था में भी जो भी सूत्र बनाये जाते हैं वे रोचक ही नहीं, अपितु लघुबद्धता एवं छन्दोबद्धता को भी लिए हुए रहता है। "सिद्धो वर्णसमाम्नाय:" यह कातन्त्र व्याकरण' का प्रथम सूत्र है, इसमें 'अनुष्टुप् छन्द' है।" अ: इति विसर्जनीय:" (18) में भी यही है। प्राय: सभी के चिन्तन में कुछ न कुछ अवश्य ध्वनित होगा। व्याकरण परम्परा ___ संस्कृत, प्राकृत या अन्य कोई भी भाषा-परम्परा क्यों न हो, उसका अपना इतिहास है, उसका कोई न कोई विकास का स्रोत है और उसकी प्रामाणिकता भी है। यदि संस्कृत वाङ्मय को ही लें, तो स्वत: ही कह उठेंगे कि यह वैदिक परम्परा से जुड़ा हआ है। जैन- साहित्य की ओर दृष्टि डालते हैं, तो इसके ग्रन्थों में भी व्याकरण के नियम प्राप्त हो जायेंगे। दिगम्बर-परम्परा के 'छक्खंडागमसत्त' और उसकी 'धवला' टीका में कई सूत्र व्याकरण की विशेषताओं को व्यक्त करते हैं। “अकारहस अ आ इ ई उ ऊ एदे छच्च समाण त्ति सुत्तेण 00 30 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000

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