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कालजयी, सार्वजनीन या विश्वजनीन नहीं हो सकता । वस्तुत: वह तो अपने लोकोपकारी, सार्वजनीन निष्पक्ष वैशिष्ट्य - गुणों के काराण ही भौगोलिक सीमाओं की संकीर्णताओं की परिधि से हटकर केवल अपने ज्ञान - भाण्डार से ही सभी को आलोकित - प्रभावित कर जन-जन का कण्ठहार बन सकता है ।
कातन्त्र - व्याकरण एक जैनाचार्य के द्वारा लिखित होने पर भी उसमें साम्प्रदायिक संकीर्णता का लेशमात्र भी न होने के कारण उसे सर्वत्र समादर मिला । ज्ञानपिपासु मेगास्थनीज, फाहियान, ह्यूनत्सांग, इत्सिंग और अलबेरुनी भारत आये । उन्होंने यहाँ प्रमुख ग्रन्थों के साथ-साथ लोकप्रचलित कातन्त्र का भी अध्ययन किया होगा और उनमें से जो भी ग्रन्थ उन्हें अच्छे लगे उन्हें सहस्रों की संख्या में वे बेहिचक अपने साथ अपने-अपने देशों में लेते गये और बहुत सम्भव है कि कातन्त्र की पाण्डुलिपियाँ भी साथ में लेते गये हो?
सन् 1984 में सर विलियम जोन्स आई०सी० एस० होकर भारत आये, और भारत के चीफ-जस्टिस के रूप में कलकत्ता में प्रतिष्ठित हुए। किन्तु संस्कृत-प्राकृत के अतुलनीय साहित्य-वैभव को देखकर आश्चर्यचकित हो गये और नौकरी छोड़कर संस्कृत - प्राकृतभाषा के अध्ययन में जुट गये। 'कातन्त्र - व्याकरण' पढ़कर वे भी प्रमुदित हो उठे। उन्होंने देखा कि इसमें पाणिनि जैसी दुरूहता नहीं है । संस्कृत - प्राकृत सीखने के लिए उन्होंने उसे एक उत्तम सरल साधन समझा । अतः उन्होंने उसका सर्वोपयोगी संस्करण तैयार कराकर स्वयं द्वारा संस्थापित 'रायल एशियाटिक सोसायटी (बंगाल) कलकत्ता' से सन् 1819 में 'कातन्त्र-व्याकरणं' के नाम से उसका प्रकाशन किया और 'फोर्ट विलियम्स कॉलेज, कलकत्ता' के पाठ्यक्रम में भी उसे निर्धारित कराया। उसके बाद तो अविभाजित बंगाल की समस्त शिक्षा - संस्थाओं में उसका पठन-पाठन प्रारम्भ हो गया ।
पाठकों को यह यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि सन् 1819 से 1912 के मध्य केवल अविभाजित बंगाल से ‘कातन्त्र - व्याकरण' तथा तत्सम्बन्धी विविध व्याख्यामूलक सामग्री के साथ 27 से भी अधिक ग्रन्थों का संस्कृत, बंगला एवं हिन्दी में प्रकाशन हो चुका था।
यह भी आश्चर्यजनक है, कि रायपुर (मध्यप्रदेश) के अकेले एक विद्वान् पं० हलधर शास्त्री के व्यक्तिगत संग्रह में सन् 1920 के लगभग कातन्त्र - व्याकरण तथा उस लिखित विविध टीकाओं, वृत्तियों एवं व्याख्याओं की लगभग 18 पाण्डुलिपियों सुरक्षित थीं, जिनका वहाँ अध्ययन कराया जाता था । अतः पतंजलिकालीन यह उक्ति कि— “ग्राम-ग्राम नगर-नगर में 'कालापक' की शिक्षा, बिना किसी सम्प्रदाय - भेद के सभी को प्रदान की जाती थीं, यथार्थ थी ।
विशेष अध्ययन से विदित होता है कि विश्व - साहित्य में कातन्त्र - व्याकरण ही संभवत: ऐसा ग्रन्थ है, जिस पर पिछले लगभग 200 वर्षों में देश-विदेश की विविध भाषाओं में
प्राकृतविद्या+जनवरी-मार्च 2000
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