Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 23
________________ 'कुमार श्रमणादिभिः' सूत्र का बौद्ध-परम्परा से सम्बन्ध नहीं है -डॉ० सुदीप जैन पाणिनीय व्याकरणग्रंथ 'अष्टाध्यायी' के द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद में 70वाँ सूत्र आता है—“कुमार: श्रमणादिभिः।" इसकी वृत्ति है—“कुमारशब्द: श्रमणादिभिः सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति।" यह प्रकरण तत्पुरुष समास का है तथा व्याकरण की दृष्टि से यह एक सामान्य उल्लेख मात्र है, परन्तु भारतीय परम्परा के अध्ययन की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं विचारणीय प्ररूपण है। इस सूत्र की वृत्ति में दृष्टान्त के रूप में 'कुमारीश्रमणा' एवं 'कुमारश्रमणा' पदों का प्रयोग मिलता है। तथा इसकी विवृत्ति में 'श्रमण' शब्द का अर्थ Labouring, Toiling अर्थात् 'श्रमशील' एवं 'सहनशील' दिया गया है। कुछ विद्वानों ने भारतीय सांस्कृतिक इतिहास एवं परम्परा की व्यापक जानकारी के अभाव में इस सूत्र में कथित 'श्रमण' पद का सम्बन्ध बौद्ध-परम्परा से जोड़ दिया है। अत: यह गंभीरतापूर्वक मननीय है कि वस्तुत: क्या पाणिनी ने इसका प्रयोग बौद्ध भिक्षुओं या भिक्षुणियों के लिए किया था? यदि हम 'श्रमण' शब्द की परम्परा एवं इतिहास पर व्यापक दृष्टिपात करें, तो हम पाते हैं कि 'श्रमण' परम्परा बौद्धधर्म की उत्पत्ति से बहुत काल पहिले से ही भारत के अविच्छिन्न रूप से विद्यमान थी। स्वयं महात्मा बुद्ध भी संसार से विरक्त होने के बाद निर्ग्रन्थ जैन-श्रमण के रूप में ही दीक्षित हुये थे, क्योंकि उस समय वैदिक एवं श्रमण -ये दो ही धारायें विद्यमान थीं। क्रियाकाण्डप्रधान वैदिकधारा से वैचारिक तालमेल न हो पाने के कारण वैराग्यप्रधान जैन श्रमण-परम्परा के साध पिहितास्रव से उन्होंने निर्ग्रन्थ श्रमण दीक्षा ली थी। ये श्रमण पिहितास्रव तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु थे। इस बारे में आचार्य देवसेन ने 'दर्शनसार' नामक ग्रंथ में लिखा है "सिरि-पासणाह-तित्थे सरयूतीरे पलास-णयरत्यो। पिहियासवस्स सिस्सो महासुदो बुड्ढकित्तिमुणी।।6।। अर्थ:-श्री पार्श्वनाथ भगवान् के तीर्थ (परम्परा) में सरयू नदी के किनारे पलाश प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 0021

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