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अविचल ज्ञान-निष्ठा ___अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग आत्मशान्ति और निराकुलता उत्पन्न करता है। ज्ञानोपयोगी को बाहरी भान भूल जाता है। संस्कृत-व्याकरण के कर्ता महर्षि पाणिनि शिष्यों को पढ़ा रहे थे। उसी समय एक शेर आ गया। शिष्यों ने भयभीत हो कर भागते हुए कहा"आचार्य व्याघ्र-व्याघ्र !” परन्तु पाणिनि भागे नहीं। उन्होंने व्याघ्र शब्द की मूल-निरुक्ति प्राप्त की। उन्होंने कहा—'व्याजिघ्रति इति व्याघ्रः' जिसकी सूंघकर पहचानने की शक्ति प्रधान हो, उसे व्याघ्र कहते हैं। इधर वे शब्द के सुन्दर भावात्मक अर्थ में खोये हुये थे कि व्याघ्र उन्हें खा गया; परन्तु चाहे सर्प, व्याघ्र, हाथी किसी का भी भय उपस्थित हो, जो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में लगे हुए हैं उन्हें ज्ञान से व्यतिरिक्त कुछ नहीं सूझता। उनकी सामयिक, समाधि, ज्ञाननिष्ठा पर्वतों के विस्फोट से भी विचलित नहीं होती। संयम : अचंचल मनःस्थिति __. मन, वचन, और काय-संयम से ज्ञान का अकम्प-दीपक जलता है। जो इन तीनों को त्रिवेणी-संगम नहीं दे सकता, उसके चचंल मन की आँधियाँ ज्ञान-दीपक को निर्वापित करने का प्रयत्न करती रहती हैं। सद्-असद् का विवेक ज्ञान द्वारा ही संभव है। संसार में भी ज्ञान का अभीक्ष्ण उपयोग करना होता है। माता, भगिनी, पत्नी, सुता इत्यादि के साथ साक्षात्कार होते ही ज्ञानोपयोग से व्यवहार-स्थिरता उत्पन्न होती है। ज्ञानशून्य को 'पागल' कहते हैं। इस लोक तथा परलोक में मार्गदर्शक ज्ञान ही है। जैसे सूर्य की उपस्थिति में सभी पदार्थ दिखाई देने लगते हैं और अन्धकार में नहीं सूझते, वैसे ज्ञानबल से भौतिक-आत्मिक विज्ञान की उपलब्धि सुगम हो जाती है। भगवान् को केवल ज्ञान प्राप्त होने से ही कैवल्य (मुक्ति) की प्राप्ति हुई। दिव्यध्वनि सर्वज्ञ की सर्वोत्तम ज्ञान-घन-गर्जना ही तो है। त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्कायलेश्या' - इत्यादि यह जैनागम की सिद्ध-मान्यतायें गम्भीर ज्ञान-गवेषणा के ही परिणाम हैं।
जीवन भर स्वाध्याय करें 'यावति विन्दजीवो:'। -(कातन्त्र, 4-6-9 ।। 799 ।। पृष्ठ 237) वृत्ति—'यावज्जीवमधीते। यावन्तं जीवति तावन्तं अधीते इत्यर्थः'।
अर्थ:-जब तक जीता है तब तक पढ़ता ही है। (बिना स्वाध्याय के धर्मानुरागी के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। विशेषत: साधुओं के लिए तो यह अति अनिवार्य है।) कहा भी है—'कंठगदे वि पाणे हि, साहुणा आगमो हु कादव्वों'।
-(आचार्य शिवार्य, भगवती आराधना, 153) अर्थ:—प्राण कंठ में आ बसे हों अर्थात् प्राणानत होने ही वाला हो, उस समय में भी साधुजनों के लिए आगमग्रंथों का ही स्वाध्याय करना चाहिए। शेष जीवन में तो करना ही | चाहिए।
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000