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नामक नगर में विराजमान श्री पिहितास्रव मुनि के शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुये। __इससे स्पष्ट है कि दीक्षोपरांत उनका नाम 'बुद्धकीर्ति' हुआ था तथा यह नाम उन्होंने यावज्जीवन अपनाये रखा। इसीलिये निर्ग्रन्थ जैनश्रमण की परम्परा से अलग होने पर भी उन्होंने अपना नाम गौतम बुद्ध' ही रखा और इसीकारण उनकी परम्परा आज भी 'बौद्ध-परम्परा' कहलाती है। उनके जन्मनाम व कुल में 'बुद्ध' संज्ञा कहीं नहीं थी। अत: यह उनका दीक्षोपरान्त नाम था, जो उनके साथ अभिन्नरूप से जुड़ गया।
अपने निग्रंथ जैनश्रमण होने के प्रमाण उन्होंने स्वयं दिये हैं। 'मज्झिमनिकाय' के 'महासीहनादसुत्त' (12) में वे लिखते हैं
“अचेलको होमि, हत्थापलेखनो, नाभिहतं न उद्दिस्सकतं न निमंतणं सादियामि, सो न कुम्भीमुखा परिगण्हामि न कलोपिमुखा परिगण्हामि, न एलकमंतरं न दण्डमंतरं न मुसलमंतरं, न दिन्नं भुंजमानानं, न गब्भनिया, न पायमानया, न पुरिसंतरगतां न संकित्तिसु न यथ सा उपट्ठितोहोति, न यथ भक्खिका संड-संड चारिनी, न मच्छं न मासं न सुरं न मरेयं न थुसोदकं पिवामि, सो एकागारिको.....एकाहं व आहारं इति एयरूपं अद्धमासिकं पि परियाय मत्तभोजनानुयोगं अनुयुतो विहरामि, केस्स-मस्सुलोचको वि होमि, केसमस्सुलोचानुयोगं अनुयुत्तो, पावउद बिंदुम्हि पिमे दया पच्च पट्ठिता होति । माहं खुद्दके पाणे विसमगते संघात आयादेस्संति।" ।
अर्थ: मैं (दीक्षोपरान्त) वस्त्ररहित (नग्न) रहा, मैंने अपने हाथों से आहार लिया। न लाया हुआ भोजन किया, न अपने उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन लिया, न निमन्त्रण से घर जाकर भोजन किया, न बर्तन में खाया, न थाली में खाया, न घर की ड्योढ़ी में खाया, न खिड़की से भोजन किया, न मूसल से कूटने के स्थान (ओखली) से लिया, न गर्भिर्णी स्त्री से लिया, न बच्चे को दूध पिलानेवाली स्त्री से लिया, न पुंश्चली स्त्री से लिया। मैंने वहाँ से भी भोजन नहीं लिया, जहाँ कुत्ता पास खड़ा था या जहाँ पर मक्खियाँ भिनभिना रहीं थीं। मैंने न मछली, न मांस, न मदिरा, न सड़ा हुआ मांड खाया और न ही तुस का मैला पानी पिया। मैंने एक ही घर से भोजन लिया, सो भी (एक दिन में) एक ही बार लिया। मैंने दिन में एक ही बार भोजन किया और कभी-कभी पन्द्रह दिनों तक भोजन नहीं किया (अर्थात् पाक्षिक उपवास किया)। मैंने मस्तक, दाढ़ी व मूछों के केशलोंच किये। उस केशलोंच-क्रिया को मैंने चालू रखा। मैं एक बूंद पानी पर भी दयालु रहता था। छोटे से जीव को भी मेरे द्वारा हिंसा न हो इस तरह मैं सतत् सावधान रहता था। वहाँ वे आगे लिखते हैं
“सो तत्तो सो सीनो एको मिसनके वने।
नग्गो न च आगिं असीनो एकनापसुतो मुनीति।।" अर्थ:—इस तरह कभी गर्मी, कभी ठंडक को सहता हुआ मैं भयानक वन में नग्न
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000