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ज्ञान का निरूपण करते हुए कहा है कि वह ज्ञान अद्भुत क्षमतावान है। पदार्थ को जानने में वह उस वस्तु की, न तो एक कला न्यून करके जानता है और न अधिक बखानता है। वह ज्ञान उसे विपरीतार्थ में भी परिणत नहीं करता तथा सन्दिन्ध-अवस्था भी नहीं रखता। उसी ज्ञान को नैयायिक 'प्रमाण' नाम से पुकारते हैं। क्योंकि 'प्रमाण' हित की प्राप्ति में तथा अहित के निवर्तन में समर्थ है, उसे यथार्थ ज्ञान कहा जा सकता है। महात्माओं के वचन इसी ज्ञान को लक्ष्य करते हैं। पंडित दौलतरामजी ने 'छहढाला' में मुनियों के वचन को ज्ञान-सम्पन्न प्रतिपादित करते हुए कहा है कि
जग सुहितकर सब अहितहर श्रुतिसुखद सब संशय हरें।
भ्रमरोगहर जिनके वचन मुखचन्द्र से अमृत झरे।। हेयोपादेय विज्ञान
वे वचन संसार का हित करनेवाले, अहित-की-निवृत्ति में सहायक, कर्णप्रिय, समस्त संशयों का उच्छेद करने में समर्थ, तथा भ्रान्तिरूप महारोग के हरण करनेवाले हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका शब्द-प्रवाह मानो मुख-रूप इन्दु से अमृत की बिन्दुयें टपक रही हों। इस प्रचलित अर्थ से अलग यह पद भगवती जिनवाणी का भी वर्णन करता है। पण्डितजी ने 'जिनके वचन' कहते हुए यही विशेषार्थ ध्वनित किया है कि भगवान् जिनेन्द्र के वचन ही संसार के हितकारी है। अहितपराङ्मुख, श्रुति (कर्ण) को सुखदायी तथा समस्त संशय-विप्लावक हैं। वे ही भ्रमरोग हरनेवाले (चतुरशीतिलक्ष योनियों में परिभ्रमण के महारोग का मोक्षमार्ग द्वारा विनाश करने में कुशल) हैं तथा दिव्यध्वनि से अमृतवर्षी हैं। यह पद हयोपादेय विज्ञान' के समस्तार्थ को द्योतित करते हुए जिनेन्द्र-वचन को 'सुहितकर तथा अहितहर-हिताहित-प्राप्तिपरिहारात्मक निरूपित करता है। ज्ञान-दीप की प्रतिष्ठा
क्रिया क्रियाजनित-परिणामों से ही प्रशंसित होती है। गौ यदि शरीर से सुन्दर है, किन्तु दोग्ध्री नहीं है, तो उसका कायिक चारुत्व अभिनन्द्य नहीं होता; अर्थात् जैसे धेनु का रूप उसके क्षीरवर्षीस्तन हैं, नुकीले शृंग नहीं; वैसे ज्ञान का फल अज्ञाननिवृत्ति है। यदि ज्ञानवान् और अज्ञ व्यक्तियों की क्रियायें समान हैं, उनमें ज्ञान ने अवरता और प्रवरता की भेद-रेखायें प्रसूत नहीं की है, तो वह अनियोजित ज्ञान है। 'न हि वह्निमहं जानामीति बुव्रन् तद्दाहशक्तिं प्रतिपद्यते न वा गुडमाचक्षाणो माधुर्यं स्वदते' किसी ने दूर से देखकर कह दिया कि मैं अग्नि को जानता हूँ', क्या उसने उसके दाहकत्व का स्पर्श भी किया है? अथवा कोई गुड़ का नाम ले ले, तो क्या गुड़निष्ठ मधुरता का अनुभव हो जाता है?
हेयोपादेय पदार्थों को जानकर यदि कोई उन्हें अँगुलिपर्यों पर गिन देता है, तो उसे ज्ञानखसूची' कहना संगत होगा। ज्ञान के नाम से आकाश की ओर मुख उठाकर तारे गिननेवाले निरे ज्ञानखसूची नहीं तो क्या हैं? ज्ञानार्जन का अभिप्राय है तन्मय हो जाना।
प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
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