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को ज्ञानवह्नि ही दग्ध कर सकती है। मोह-व्रण की चिकित्सा के लिए ज्ञान का शल्योपचार आवश्यक है। इसीप्रकार अनन्त सुख की प्राप्ति के लिए मोहतर का निर्मूलन अपेक्षित है। शास्त्राध्ययन करने पर भी मोहावस्था का कुहम (तम, अन्धकार) अन्त:करण में विद्यमान है, तो पुस्तकों के पृष्ठ उलटने का श्रम किस काम का? 'बुद्धे: फलं ह्यात्महितप्रवृत्ति:' ज्ञान का वास्तविक लाभ सांसारिक विभुताओं का विस्तार करने की योग्यता नहीं है, देखा जाता है कि भौतिक वैभव तो अज्ञानतिमिरान्धों के पास भी प्रचुर है। ये दवागमनभोयानचामरादिविभूतियाँ' तो मायावियों के निकट भी हैं, किन्तु यह महत्त्व का सूचन नहीं है। ज्ञानी तो उसे कहना होगा, जिसने आत्महित को जान लिया है और शरत्काल में अपने सुन्दर पंखों का परित्याग करनेवाले मयूर के समान परिग्रहों का स्वत: विसर्जन कर दिया है।
कर्मसृष्टि के आदिकाल से समुद्रपर्यन्त पृथ्वी के शासन का परित्याग कर सन्यासरूप प्रशमैकवृत्ति को अंगीकार करने वाले श्रीवृषभ वर्द्धमानादिकों ने शास्त्रपरिणाम को, बुद्धिसमागम को, विवेकख्याति को इसी आत्महित-प्रवृत्ति में नियोजित करते हुए समग्र विद्यात्मवपुष्मता तथा निरंजन पद प्राप्त किया है। भगवान् की ज्ञानात्मताका विजयी घोष उनके 'विश्वचक्षु' विशेषण में है। विश्वचक्षु' अर्थात् जिनके नेत्र विश्व-दृष्टा हैं, जो सर्वज्ञ के ज्ञानभास्वर पुण्याभिधान से लोकविश्रुत हैं; उन्हें 'चतुर्मुख' कहने का यही अभिप्राय है कि उनकी ज्ञानात्मिका दृष्टि यदि सर्वतोदिक है, तो मुख-विवर्तन कर किसी दिशा विशेष में देखने का प्रयास उन्हें नहीं करना होता। अनन्त ज्ञान ही उनके अनन्त नेत्र हैं।
वास्तव में ज्ञान-विहीन को इन्द्रियाँ भी उपकारक नहीं हो पाती तथा ज्ञानी नेत्रों की सहायता के बिना भी अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष करते रहते हैं। उपनिषद्' की भाषा में कहा गया है कि–'कश्चिद् धीर: प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्व मिच्छन् संसार के प्राय: सभी प्राणी अपनी इन्द्रियों को बहिर्मुख रखते हैं तथा बाहरी जगत् का आनन्द लेते हैं। उनमें कोई धीर पुरुष ऐसा भी होता है, जो अपनी इन्द्रियों की इस बहिर्वृत्ति का निरोध कर उसे अन्तर्मुख करता है तथा आत्मस्थित हो कर अमृतपान करने में समर्थ हो जाता है। उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले' इस स्वात्माराम स्थिति को आत्मलीनावस्था में सर्वज्ञ ही प्राप्त करते हैं न तस्य कार्य करणं च विद्यते' उस परमात्मा को न कोई कार्य है और न इन्द्रियाँ हैं।' उनका अन्तरंग एवं बहिरंग आत्मा है। उन्होंने आत्मभिन्न समस्त पौदगलिक विभावों का परित्याग कर दिया है। जैसे सर्प ने कंचुकी उतार फैकी हो, जैसे हिम-शिलाओं ने अपिने तुषारकिरीट को उतार दिया हो, जैसे चन्दनकाष्ठ ने अपने-आपको दग्धकर नाम रूपात्मकता का विसर्जन कर दिया हो। उन्हें ही ज्ञान की वास्तविकता प्राप्ति हुई, ऐसा कहना चाहिये। आचार्यश्री समन्तभद्र ने आगमपरम्परागत
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प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000