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आनन्द की अनुभूति नहीं होती। ऐसी स्थिति में तो कहना चाहिये कि जैसे वारांगना अपने को बहुमूल्य वस्त्रालंकारों से सज्जित कर उससे तब तक सन्तुष्ट नहीं होती, जब तक उसका कोठे पर प्रदर्शन न कर ले। उसीप्रकार वह व्यक्ति जो ज्ञान को उसी पण्यवीथियों में खींच ले जाना चाहता है, तथा वहाँ प्राप्त 'वाह-वाह' से अपने स्वाध्याय को सिद्ध मानता है, वह भूल में है और गोपनीय मणि को अल्पमूल्य पर बेचकर सुख मानता है। ___ 'ऋग्वेद' में इसी आशय को स्पर्श करती हुई एक ऋचा में कहा गया है कि विद्या ब्रह्मज्ञानी के पास आकर बोली – “मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हारी निधि हूँ।" ब्रह्मज्ञानी ने पूछा- “अम्ब ! तुम्हारी रक्षा किस प्रकार करूँ? सरस्वती ने बताया- "गुणों में दोषदर्शी, शठ, मिथ्याभाषी, इन्द्रिय लोलुप व्यक्ति को मुझे मत देना। ऐसा करने से मैं वीर्यवती बनूँगी।”
अहो ! ज्ञान देने से पूर्व गुरु को ज्ञान लेनेवाले की परख करनी चाहिये। अपात्र को दिया गया दान मद्यपान अथवा द्यूत की भेंट भी हो सकता है; परन्तु लोग खट्टी छांछ करने के लिए तो पात्र-अपात्र का विचार रखते हैं और ज्ञान-संपत्ति को फटी हुई पॉकेट में पैसों की तरह रास्ते में बिखेरते चलते हैं; इसीलिए विद्या (ज्ञान) अपने वास्तविक फल में शून्य हो गयी। नौका पानी में ही स्थिर रहती है, मैदानों में निकलकर लोगों का आवाहन नहीं करती।
जिसे पार उतरना हो, वह स्वयं तट पर आकर शुल्क देता है। पुस्तक का मूल्य मात्र व्यवसाय के दृष्टिकोण से ही नहीं रखा जाता, उसे आवश्यक हाथों तक पहुँचाना भी उसका उद्देश्य होता है। ज्ञान अग्नि है, अग्नि का धर्म स्वाकारवृत्ति प्रदान करना है। यही ज्ञान का फल है। यह 'ज्ञान' रत्नत्रय के मध्य में विराजमान महामणि है। 'इन्द्रिय-रूप तस्कर इसे चुराने के लिए प्रतिपल उद्यत हैं। यहाँ मोहनिद्रावशीभूत होने से काम नहीं चलेगा। अहर्निश जागते रहना होगा।' प्रात:काल के एक भजन में किसी ने बहुत सुन्दर प्रबोध-गीत गाया है
"उठ, जाग मुसाफिर ! भोर हुई, अब रैन कहाँ जो सोवत है।
जो जागत है, सो पावत है, जो सोवत है, सो खोवत है।" । प्राय: लोग शैया से तो प्रात:काल देर-सवेर उठ ही जाते हैं; परन्तु सायंकाल रात्रि होते-होते पुनः शयन-कक्षों में पहुँच जाते हैं। उन्हीं अशित-भुक्त विषयों का अपरिवर्तित दैनिक आस्वादन करते-करते यम-मंदिर के दीप-मार्ग दिखाने आ पहुँचते हैं।
इसप्रकार भौतिक रात्रि तो प्रतिदिन अस्त होती रहती है; परन्तु अध्यात्म-दृष्टि से जीवन-पर्यन्त सवेरा नहीं हो पाता। सूर्य के प्रकाश में तो लौकिक तिमिर के नाश का अनुभव सभी करते रहते हैं, तथापि आत्मप्रकाश का प्रभाव बहुत कम व्यक्ति देख पाते हैं।
ज्ञान ही वह सूर्य है जिसके आलोक में आत्मा को अनस्तमित (कभी अस्त न होने
प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000
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