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यथासंभव प्रयत्न मैने अपनी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति और अहिंसा' में किया है । अब जैन धर्मकी यह हालत क्यों हुई, इसकी चर्चा इस लेखमें की है। ___ बौद्ध और जैन धर्मोंकी वर्तमान दुर्दशाका प्रधान कारण है संप्रदायोंका परिग्रह । जैसा कि धम्मपदमें कहा गया है,
असारे सारमतिनो सारे चासारदस्सिनो।
ते सारं नाधिगच्छन्ति मिच्छासंकप्पगोचरा ॥ [ अर्थात् असार बातोंमें सार माननेवाले और सारयुक्त बातोंमें असार देखनेवाले तथा मिथ्या संकल्पोंमें विचरनेवाले लोग सार प्राप्त नहीं कर सकते।] __ ये साम्प्रदायिक लोग निरर्थक बातोंको महत्त्व देकर धर्म-रहस्यसे दूर चले गये । इसका एक दिलचस्प अनुभव मुझे भी हुआ।
बद्ध-कालमें मांसाहारकी प्रथा कैसी थी, यह दिखानेके लिए 'पुरातत्त्व' नामक त्रैमासिक पत्रिकामें मैंने एक लेख लिखा । उस लेखमें मैंने प्रमाणोंके साथ यह बतलाया कि उस समयके सभी प्रकारके श्रमणोंमें मांसाहार प्रचलित था और उसी लेखमें कुछ हेरफेर करके 'भगवान् बुद्ध' पुस्तकका ११ वाँ अध्याय लिखा । मराठी 'भगवान् बुद्ध' का उत्तराध, जिसमें यह अध्याय आया है, नागपुरके सुविचार प्रकाशनमंडलकी ओरसे सन १९४१ ईसवीमें प्रकाशित हुआ । कुछ दिगम्बर जैनोंने यह अध्याय पढ़ा और उन्हींने यवतमाल (विदर्भ) में एक संस्थाकी स्थापना करके उसके द्वारा मुझपर निन्दा-निषेधकी बौछार शुरू कर दी, और अदालतमें नालिश करनेकी भी धमकी दी। अन्तमें मैंने नागपुरके 'भवितव्य' (साप्ताहिक ) में एक पत्र प्रकाशित करके अपने आलोचकोंको स्पष्ट उत्तर दे दिया। तबसे विदर्भमें चलनेवाला वह आन्दोलन ठंडा पड़ गया।
पर हमारे सनातनी जैन भाई चुप नहीं बैठे । सन् १९४४ में कलकत्तेसे लेकर काठियावाड़ ( सौराष्ट्र ) तक अनेक सभाएँ करके उन्होंने मेरे निषेधके प्रस्ताव पास किये। उसमें सन्तोषकी बात यह थी कि