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पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म चर्चा पंडित कल्याणविजय गणिने अपनी पुस्तक — श्रमण भगवान् महावीर के छठे परिच्छेदमें की है । इतनी बात स्पष्ट है कि कलिंग होते हुए जो साधु दक्षिणमें गये वे जिनकल्पी हो गये और जो उज्जैन होते हुए गुजरात पहुँचे वे स्थविरकल्पी हो गये। इन दोनों संप्रदायोंने जैन धर्मका बहुत प्रचार किया; परंतु व्रत-बन्धनोंमें बद्ध होनेके कारण वे हिन्दुस्तानसे बाहर न जा सके। वह कार्य बौद्ध संघने किया । ईरानसे लेकर चीनतक बौद्ध भिक्षुओंने सब देशोंमें बौद्ध धर्मको फैलाया ।
बौद्ध और जैन श्रमणोंका ह्रास ___ मनुष्य-मनुष्योंमें झगड़े और मार-पीट अनादिकालसे चली आई है। उनसे ऊबकर जंगलमें जाकर तपस्या करनेवाले ऋषि-मुनि बुद्ध-पूर्वकालमें केवल हिन्दुस्तानमें ही थे। उनके भी संघ थे। परंतु वे सामाजिक व्यवस्थामें हस्तक्षेप नहीं करते थे। अरण्यमें निवास करनेसे उन्हें जंगली प्राणियोंके प्रति आदर रखना ही पड़ता था । अतः दया तो उनकी तपस्याका एक अंग ही बन गया। परंतु यह दया प्राणियोंतक ही सीमित थी। इधर मनुष्य-समाजमें जो मारपीट चलती थी, उसके प्रति वे उदासीन थे। इतना ही नहीं बल्कि यज्ञमें की जानेवाली पशुहिंसाको भी बंद करनेका प्रयत्न उन्होंने नहीं किया। · ऋषियोंके इस दयाधर्मको सार्वजनिक बनानेका प्रयत्न प्रथमतः 'पार्श्वनाथने किया। उन्होंने यह जान लिया कि चोरी, असत्य और परिग्रहका त्याग किये बिना मनुष्य-समाजमें दयाधर्मका प्रसार होना कठिन है, और उसके अनुसार अपने चातुर्याम धर्मका उपदेश देना शुरू किया । उस समयके राजा लोग ऋषिमुनियोंको बहुत मानते थे; अतः उन्हींके मार्गसे चलनेवाले इन श्रमणोंका विरोध उन्होंने नहीं किया। परंतु उन्होंने यज्ञ-याग भी नहीं. छोड़े। बुद्धसमकालीन