Book Title: Parshwanath ka Chaturyam Dharm
Author(s): Dharmanand Kosambi, Shripad Joshi
Publisher: Dharmanand Smarak Trust

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Page 59
________________ बौद्ध और जैन श्रमणोंका ह्रास ३५ प्रसेनजित और बिम्बिसार ( श्रेणिक ) यज्ञ करते ही थे । इतना था कि उनके राज्योंमें श्रमणोंको धर्मोपदेश देनेकी स्वतंत्रता थी । अतः श्रमणोंका विशेष सम्बन्ध जनताके साथ होता था । अधिकसे अधिक कोई मध्यवित्त व्यापारी उनके निवासके लिए विहार या उपाश्रय बनाकर उनकी मदद करता । परंतु उनका निर्वाह प्रधानतया भिक्षापर ही होता था । अर्थात् उनका धर्म बहुजनसमाजके हितसुखके लिए होता थाबहुजनहिताय बहुजनसुखाय । । परंतु अशोककालके बाद यह स्थिति बदल गई। अशोकने श्रमणसंघोंका मान-सम्मान बहुत बढ़ाया। इससे उसीके समयमें उनमें विशेष सांप्रदायिकता आई और वे आपसमें झगड़ने लगे। उन झगड़ोंको मिटानेके प्रयत्नोंके उल्लेख अशोकके शिललेखों और स्तंभलेखोंमें स्पष्टरूपमें मिलते हैं । परंतु उसके प्रयत्न सफल नहीं हुए । श्रमणोंका सांप्रदायिक परिग्रह बढ़ता गया और होते होते आजीवक आदि श्रमणसंप्रदाय तो नष्ठ ही हो गये । केवल बौद्ध और जैन दो ही बाकी रह गये। परंतु उनकी परिग्रहदृष्टि बढ़ जानेसे उनमें भी आपसी झगड़े शुरू हो गये । जैनोंमें श्वेताम्बर और दिगम्बर तथा बौद्धोंमें महायान और स्थविरवाद-जिसे महायानी लोग हीनयान कहते थे—जैसे दो प्रमुख पंथ हो गये और फिर इन पंथोंमें भी अनेक भेद उत्पन्न हो गये । जिस प्रकार साधारण लोग संपत्ति-परिग्रहके लिए झगड़ते हैं, उसी प्रकार ये श्रमण संप्रदाय-परिग्रहके लिए झगड़ने लगे। मज्झिम निकायके अलगदूपमसुत्तमें भगवान् बुद्ध कहते हैं :-“ऐ भिक्षुओ, जब कोई यात्री किसी बड़ी नदी या तालाबके पास पहुँचेगा और देखेगा कि उसका किनारा सुरक्षित नहीं है, वहाँ भय है, और उसपारका किनारा सुरक्षित और निर्भय है; पर वहाँ उसपार जानेके लिए नौका या पुल नहीं है, तो उस समय वह सूखी लकड़ियाँ और

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