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पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म
न परेसं विलोमाति न परेसं कताकतं । अत्तनो व अवेक्खेय्य कतानि अकतानि च ॥x
[ अर्थात् औरोंकी त्रुटियों तथा औरोंके करने न करनेका विचार न करके अपने ही कार्य एवं अकार्यका विचार किया जाय । ]
— के न्यायसे धर्मकीर्तिको पहले अपने ही सम्प्रदायको सुधारनेकी चेष्टा करनी चाहिए थी । यह काम न्यायके उत्कृष्ट ग्रन्थ लिखनेसे होना असम्भव था । प्रतिष्ठाका विचार दूर रखकर फिर एक बार, पार्श्वनाथ और बुद्धकी तरह सीधे साधारण जनताके पास जाकर उसे सत्यकी शिक्षा देनी चाहिए थी । निःसंशय यह काम संस्कृतमें न करके जनसाधारणकी भाषामें ही करना चाहिए था । पर क्या धर्मकीर्ति और क्या अन्य श्रमण-ब्राह्मण, सभी अपने अपने सम्प्रदायों में फँसे हुए थे । वे जनताके हितका प्रयत्न कसे करते ?
ब्राह्मणोंका जातिवादावलेप इतना मोटा हो गया था कि उसमेंसे उन्हें लोकहित दिखाई देना असम्भव था । राजाको जो पसन्द आएँ वही बातें करके अपना और अपनी जातिका महत्त्व बरकरार रखने में ही वे अपनेको धन्य मानते थे। ऐसी स्थितिमें,
राजा विलुम्यते रट्ठ ब्राह्मणो च पुरोहितो । अत्तगुत्ता बिहरत जातं सरणतो भयं ॥
( अर्थात् राजा और ब्राह्मण पुरोहित राष्ट्रको लूट रहे हैं । अतः अब अपने ऊपर ही निर्भर रहो । जिसे तुम शरण (ण्य) समझते हो उसीसे भय उत्पन्न हुआ है।)
- इस प्रकार पदकुसल जातक के बोधिसत्त्वके समान लोगों को X धम्मपद, ५० ।