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शरीर-श्रम
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निर्भर रहना पड़ा । अतः जब ये संप्रदाय लुप्तप्राय हुए तो सर्व सामान्य लोगोंको उनके लिए विलकुल दुःख नहीं हुआ।
ईसा मसीहके लगभग सभी शिष्य शरीरश्रम करनेवाले थे। उस संप्रदायमें शरीरश्रमका निषेध कभी नहीं किया गया । परंतु पादरी लोग राजाश्रित बनकर परिग्रही हो गये और पोपसाहबने तो राजसत्ता हथियानेमें भी आनाकानी नहीं की। इससे ईसाई धर्म अप्रिय होता गया
और फिर उसे धीरे-धीरे आजकी हालत प्राप्त हुई। __ शरीरश्रमको सोशलिस्टोंने अत्यंत महत्त्व दिया है। उनका यह सिद्धान्त है कि, 'जो काम करेगा, उसीको अन्न मिलेगा ।' टॉलस्टायने इस सिद्धान्तको धर्ममार्गमें चरितार्थ करके बताया । अपनी ढलती उम्रमें लिखे हुए लेखोंमें टॉलस्टायने यह अच्छी तरह विशद करके दिखाया है कि आध्यात्मिक उन्नतिके लिए शरीरश्रमकी अत्यंत आवश्यकता है। यही सिद्धान्त महात्मा गाँधीने अपनी प्रवृत्तियोंको लागू किया। इतिहाससे यह बात सिद्ध होती है कि शरीरश्रमके बिना चातुर्याम धर्म टिकाऊ नहीं हो सकता । जब तक शरीरश्रम न करनेवाला धनिकवर्ग और उस वर्गपर जीनेवाले धर्मोपदेशक और अध्यापक दुनियामें मौजूद हैं तब तक सामान्य जनताके सुख-सन्तोषकी आशा करना व्यर्थ है। ये लोग जनतंत्र, धर्म आदि नामोंसे श्रमजीवियोंको रास्ता भुलाकर युद्धकी खाईमें धकेले बिना नहीं रहेंगे। इन आलसी लोगोंका उच्चाटन सोवियत रूसकी तरह करना हमारे लिए संभव नहीं है, क्योंकि हमारा साधन शस्त्र नहीं बल्कि अहिंसा है। परंतु प्रचारके शस्त्रका प्रयोग हम कर सकते हैं आर वह शस्त्रोंसे भी अधिक प्रभावकारी होता है।