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१०० पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म
mmmmmm सौभाग्यसे बौद्ध धर्ममें ऐसे नियम या व्रत नहीं हैं । इसी लिए वह धर्म इतना फैल गया। जैनोंने ऐसे व्रत करके अपने धर्मको ही नहीं बल्कि हिन्दुओंकी संस्कृतिको भी संकीर्णता प्रदान की । ' अटकके उस पार नहीं जाना चाहिए' अथवा 'समुद्रपर्यटन नहीं करना चाहिए' जैसे आत्मघातकी नियम ऐसे व्रतोंमेसे ही निकले । जैनों द्वारा बहुत ज्यादा महत्त्व दिये जानेके कारण ही सम्भवतः ये व्रत चले।
शरीर-श्रम शरीर-श्रमको जैन और बौद्ध ग्रन्थोंमें महत्त्व नहीं दिया गया है। इन सम्प्रदायोंके साधु अत्यन्त पराधीन होते हैं। वे न तो ज़मीन खोद सकते हैं, न पेड़की छोटी-सी टहनी काट सकते हैं, न रसोई बना सकते हैं, और न घर या कुटिया ही बना सकते हैं। इन सभी बातोंमें उन्हें अपने-अपने उपासकों या श्रावकोंपर निर्भर रहना पड़ता है। इन सब कामोंमें जो छोटे-मोटे प्राणियोंकी हिंसा होती है, उसे गृहस्थोंसे करवाने पर पाप नहीं लगता, स्वयं करने पर ही पाप लगता है, ऐसा उनके कर्मकाण्ड ( विनय )का मत दिखाई देता है । इन दो धर्मोकी अवनतिके जो अनेक कारण हुए, उनमें यह एक प्रमुख कारण समझना चाहिए। इससे जैन साधुओं और बौद्ध भिक्षुओंमें आलस्य या सुस्ती शीघ्र ही बढ़ गई और वे समाजके लिए बोझ बन गये । ऐसे लोगोंके सम्प्रदाय राजाओं और अमीरोंकी खुशामद किये बिना नहीं चल सकते ।
महावीर और बुद्धके समयमें ये श्रमण-संघ बहुत छोटे थे और वे सालमें आठ महिने लगातार प्रचार-कार्य करते हुए घूमते थे। अतः उनके मार्गमें ये बन्धन बाधक न बन सके। मगर जब यही संघ बड़े-बड़े विहारों और उपाश्रयोंमें रहने लगे, तब उनकी सुस्ती जनसाधारणको महसूस होने लगी और उन्हें राजाओं और धनवानोंपर