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श्रमणका आधार धनिकवर्ग
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कोई मध्यवित्त गृहस्थ या विशाखा जैसी उपासिका उनके लिए विहार अथवा उपाश्रय बनवाती और उनके निवासका प्रबन्ध करती । राजा उनका आदर करते और अपने राज में रहनेकी स्वतंत्रता उन्हें देते; परंतु राजाओंके साथ ये श्रमण विशेष परिचय नहीं रखते थे । अशोक के बाद यह स्थिति बदल गई । राजाओं और अमीरोंक बिना विहार, उपाश्रय या मंदिर बनाना या चलाना असंभव होता गया और इस वर्गको खुश रखने के लिए श्रमणोंको चातुर्याम धर्मको तिलांजली देनी पड़ी ।
राजा तो हिंसक ही होता था अक्सर अपने भाई बन्दोंको और कभी-कभी तो अपने बापको ही मारकर वह गद्दीपर बैठता और फिर बार बार लड़ाइयाँ करके अपने राज्यकी रक्षा या विस्तार करता। जब वह इन श्रमणोंको आश्रय दे देता तब उसकी हिंसाके विरोध में मुँह से एक शब्द भी निकालना उनके लिए संभव नहीं होता था । उसे खुश रखनेके लिए ये श्रमण चाहे जैसी दन्तकथाएँ गढ़ते; और इस प्रकार सत्यके याम अथवा महाव्रतको बिलकुल छोड़ देते। जिसने सत्यको त्याग दिया वह भला कौन-सा पाप नहीं करेगा ? चूलराहुलबाद सुत्तमें भगवान् बुद्ध राहुलसे कहते हैं—
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एवमेव खो राहुल यस्स कस्सचि सम्पजान मुसावादे नत्थि लज्जा, नाहं तस्स किञ्चि पापं कम्मं अकरणीयं ति वदामि । " (अर्थात् इसी तरह हे राहुल, मै कहता हूँ कि जिस किसी को जान-बूझकर झूठ बोलने में लज्जा नहीं आती, उसके लिए कोई भी पाप अकर्तव्य नहीं है । )
जैनोंके पच महाव्रतोंमेंसे यह एक था । बड़े आश्चर्यकी बात है कि विलक्षण कल्पित कथाएँ रचनेवाले जैन साधुओंके ध्यानमें यह कैसे नहीं आया कि वे अपनी करतूतोंसे इस महाव्रतका भंग कर रहे हैं ?.