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पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म
सिद्धराज कट्टर शैव था; परन्तु वह विद्वानोंका सम्मान करता था । उसकी स्तुति करके हेमचन्द्रसूरि उसके मित्र बन गये और आठ व्याकरण उपलब्ध होते हुए भी केवल सिद्धराज के लिए नौवाँ व्याकरण उन्होंने लिखा और उसे ‘सिद्ध-हेम' नाम दिया । राजाको खुश रखने की यह कैसी चेष्टा है ! हेमचन्द्रसूरिके सहवासमें रहकर भी सिद्धराज कुमार - पालकी हत्या करनेकी कोशिश कर रहा था और हेमचन्द्रसूरिने उसका निषेध नहीं किया और फिर भी वह प्रभावक बना । सारांश, कालकाचार्यसे लेकर आजतक जैन समाजका यह मत रहा है कि राजाश्रयसे या धनवान् वर्गकी सहायतासे जो व्यक्ति जैन मंदिर बनवाता है और उपाश्रयोंकी वृद्धि करता है वह श्रेष्ठ जैनाचार्य है ।
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परंतु क्या इन बातोंसे चातुर्याम धर्म अथवा पंच महाव्रतों का विकास हुआ ? काव्य, नाटक या पुराण लिखकर राजाओंका मनोरंजन तो ब्राह्मण भी करते थे; फिर उनमें और इन जैन आचार्यों में क्या अन्तर रहा ? ब्राह्मणोंके काव्य-नाटक-पुराणोंके सामने जैनोंके काव्य - नाटक -पुराण फीके पड़ गये और लुप्तप्राय हो गये । इधर कुछ समय से उन्हें प्रसिद्धि मिल रही है । परंतु यह संभव नहीं कि वे ब्राह्मणोंके ग्रंथोंसे आगे बढ़ जायेंगे । जैन धर्मको प्रश्रय देनेवाले राजाओंके चले जाते ही जैन मंदिरों आर उपाश्रयोंकी शान भी चली गई। अतः इतनी दौड़-धूपसे जैन आचार्यांने क्या हासिल किया ?
* प्रभावक शब्दकी व्याख्या श्रीकल्याणविजयजीने इस प्रकार को है: - जैन शास्त्रों में यह शब्द पारिभाषिक समझा जाता है । इसका अर्थ यह है कि अतिशय ज्ञान, उपदेशशक्ति, वादशक्ति या विद्या आदि गुणोंसे जो जैन आचार्य ( जैनशासनका ) उत्कर्ष करता है वह प्रभावक है ।