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पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म सात बरसतक भटकता रहा । संवत् ११९९ में जब सिद्धराजकी मृत्यु हुई, तब कुमारपाल पाटण आया और अमात्योंने उसे राजसिंहासनपर बैठाया ।
राजा बननेके बाद कुमारपालने अजमेरके अर्णोराजापर ११ बार आक्रमण किया; परंतु उसमें उसे सफलता नहीं मिली। तब उसने अजितनाथ तीर्थकरसे मन्नत मानकर अर्णो राजापर धावा बोल दिया और उसे जीत लिया । अपनी मन्नतके अनुसार कुमारपालने तारंगाजीपर २४ हाथ ऊँचा अजितनाथका मंदिर बनवाया और उसमें १०१ अंगुल ऊँचाईकी अजितनाथकी मूर्तिकी प्रस्थापना की । हेमचन्द्रसूरिके उपदेशके अनुसार उसने और भी अनेक जैन मंदिर बनवाये । संवत् १२२९ में ८४ बरसकी आयुमें हेमचन्द्रसूरिका देहान्त हुआ।
इन चरित्रोंका निष्कर्ष उल्लिखित तीन जीवनचरित्र ‘प्रभावकचरित्र' नामक ग्रंथसे लिये गये हैं। यह संस्कृत मूलग्रंथ प्रभाचन्द्रसूरिने विक्रम संवत् १३३४ में लिखा था। इसका गुजराती अनुवाद भावनगरकी जैन आत्मानंद सभाने संवत् १९८७ में प्रकाशित किया था। पण्डित कल्याणविजय मुनिने इस ग्रंथकी भूमिका लिखी है और — प्रबन्धपर्यालोचन' नामक लेख उसमें जोड़ दिया है। उनके उस लेख और मूल ग्रंथकी बातोंके आधारसे ऊपरके तीन चरित्र अत्यंत संक्षेपमें दिये गये हैं। उनमें कोई त्रुटि रह गई हो तो पाठक मुझे क्षमा करें।
गर्दभिल्ल राजाने कालकाचार्यकी बहनको जबर्दस्ती अपने जनानखानेमें रख लिया, यह बात निःसंशय निन्दनीय थी; परंतु उसका बदला लेनेके लिए शाही राजाओंको लाकर उनसे गर्दभिल्लकी हत्या करवाना जातिदेशकालसमयानवच्छिन्न सार्वभौम अहिंसामहाव्रतका