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हेमचन्द्रसूरि
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इच्छा पूरी कीजिए।" इसपर हेमचन्द्रसूरि बोले, " इससे पहले रचे गये आठ व्याकरण काश्मीर देशमें हैं। उन्हें देखनेके बाद ही नये व्याकरणकी रचना की जा सकेगी।” राजाने तुरन्त अपने नौकरोंको काश्मीर भेजकर वे व्याकरण मँगवा दिये और उनका अनुसरण करके हेमचन्द्र सूरिने ' सिद्ध-हेम' नामका व्याकरण लिखा। इस व्याकरणके प्रत्येक पादके अन्तमें एक एक श्लोक है। उन श्लोकोंमें मूलराज और उसके वंशज राजाओंका वर्णन है। ३२ वें पादके अन्तमें चार श्लोक हैं। उनमें सिद्धराजकी प्रशंसा की गई है । इस व्याकरणको लिख लेनेके लिए राजाने ३०० लेखक जमा किये और उनसे उसकी प्रतियाँ करवाकर अंग, बंग, कलिंग, लाट, कर्णाटक, कोंकण, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, वत्सुकच्छ, मालव, सिन्धु, सौवीर, नेपाल, पारसीक, मुरुंड, गंगाके उसपार हरद्वार, काशी, चेदि, गया, कुरुक्षेत्र, कान्यकुब्ज, गौड़, श्रीकामरूप, सपादलक्ष, जालंधर, खस, सिंहल, महाबोध, बोड़, कौशिक
आदि देशोंमें उस व्याकरणका प्रसार किया। __एक बार चतुर्भुज नामके जैन मन्दिरमें हेमचन्द्रसूरिके शिष्य रामचन्द्र मुनि नेमिनाथके सम्बन्धमें भाषण दे रहे थे। उसमें पाण्डवोंकी दीक्षाका वर्णन आया। उसे सुनकर ब्राह्मण नाराज हुए और उन्होंने राजाके पास जाकर शिकायत की कि, "ये खेताम्बर जैन साधु बिलकुल झूठ बोलते हैं । पाण्डव हिमालय पर्वतपर गये और वहाँ केदारनाथकी पूजा करके उन्होंने इहलोकको छोड़ दिया। ऐसा होते हुए भी ये शूद्र श्वेताम्बर पाण्डवोंद्वारा जैन धर्मकी दीक्षा लेकर शत्रुजय पर्वतपर देहविसर्जन किये जानेका झूठा किस्सा सुना रहे हैं । ऐसे असत्यवादियोंको उचित दण्ड मिलना चाहिए।"
* मूलराज सिद्धराजाके घरानेका मूल पुरुष था ।