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पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म
किया कि दोनों तरफ़के पंडित सरहदपर जमा होकर वाद-विवाद करें
और जिसके पंडितोंकी जय हो उस राजाको दूसरा राजा अपना राज दे दे। उसके अनुसार सरहदपर एक स्थानमें ये दोनों राजा आ गये। आमकी ओरसे बप्पभट्टिको और धर्मकी ओरसे बौद्ध पंडित वर्धनकुञ्जरको. चुना गया। उन दोनोंका वाद-विवाद छह मासतक चलता रहा और अन्तमें बप्पभट्टिकी जीत हुई। उसने आम राजाको समझाकर राजा धर्मका राज उसे लौटा दिया और तबसे वर्धनकुञ्जरके साथ उसकी मित्रता हो गई।
नन्नसूरि और गोविन्दसूरि बप्पभट्टिके गुरुबन्धु थे। उनकी स्तुति वह आम राजाके पास बारबार करता। एक बार मेस बदलकर आम राजा नन्नसूरिके पास गया। वहाँ छत्र-चामर आदि ठाठबाटके साथ बैठे हुए नन्नसूरिको देखकर आमने उसकी कड़ी आलोचना की। दूसरी बार आम वहाँ गया तब नन्नसूरि जैन मंदिरमें बैठकर वात्स्यायनके कामसूत्रपर भाषण दे रहे थे। तब आम जान गया कि यह व्यक्ति विद्वान् अवश्य है, पर सच्चरित साधु नहीं है।
आमको समझानेके लिए गोविन्दसूरिने आदिनाथचरित्रका एक नाटक रचा और उसका प्रयोग दरबारमें करवाया। उसमें इतना वीर रस लाया गया था कि उससे राजाके मनमें शौर्यका संचार हुआ और वह तलवार खींचकर उठ खड़ा हुआ। तब अंगरक्षकोंने उसे समझाया कि वह युद्ध नहीं बल्कि नाटक है। नन्नसूरि और गोविन्दसूरि भी भेस बदलकर उस सभामें बैठे थे। राजाकी हालत देखकर गोविन्दसूरि प्रकट होकर बोले, " राजन्, क्या यह उचित हुआ कि आपको यह नाटक वास्तविक प्रतीत हुआ ? यदि नहीं, तो नन्नसूरिके मुँहसे वात्स्यायनके कामशास्त्रपर व्याख्यान सुननेपर आपको शंका आना कहाँतक उचित था ? " यह सुनकर राजा आमने क्षमा माँगी।