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चातुर्याम धर्मका बुद्धद्वारा विकास
काम नहीं चलेगा; उनमें समाधि एवं प्रज्ञाको भी जोड़ देना चाहिए । चार याम शिव ( कल्याणपद ) हैं, समाधि शांत और सुन्दर है, और प्रज्ञा सत्यबोधकर है ।
आजीवक या निग्रंथ जो तपश्चर्या करते थे, वह किसलिए ? इसी - लिए कि पूर्वजन्मके कर्मोंका नाश होकर आत्माको कैवल्य प्राप्त हो सके×। परंतु जिस आत्माके लिए यह तपश्चर्या करनी है, उसका अस्तित्व ही कुछ श्रमण स्वीकार नहीं करते थे। ऐसे मतका समर्थक अजित के कंबल था । पूरण काश्यपका कहना था कि आत्मा अमर है और उसे किसी बातसे हानि नहीं पहुँचती । + निम्नलिखित देवपुत्र संयुत्तकी गाथासे यह दिखाई देता है कि पूरण काश्यपका मत माननेवाले. बहुत-से लोग थे ।
बुद्धके पास आकर असम देवपुत्र यह गाथा कहता है :
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इध छिन्दित मारिते न पापं समनुपस्सति सवे विस्सासमा चिक्खि
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हतजानीसु कस्सपो । पु वा पन अत्तनो । सत्त्था अरहति माननं ॥
[ अर्थात् मारपीट और लूटपाट करनेमें आत्माको पाप या पुण्य नहीं है, ऐसा पूरण कश्यप देखता है । वह धर्मगुरु (शास्ता ) मोक्षका विश्वास दिलाता है; अतः वह माननीय है । ]
अतः ऐसे आत्मवादमें कौन सच्चा और कौन झूठा ? गोतम बोधि
X इति पुराणानं कम्मानं तपसाव्यन्ती भावा, नवानं कम्मानं अकरणा आयतिं अनवस्सवो, आयतिं अनवस्तवा कम्मक्खयो, कम्मक्खया दुक्खक्खयो, दुक्खक्खया वेदनाक्खयो, वेदनाक्खया सब्बं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सती ति । - चूळदुक्खक्खन्धसुत्त, मज्झिमनिकाय, मूलपण्णासक ।
* भ० बु० पृ० १८६
+ भ० बु० पृ० १८४