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चातुर्याम धर्मका बुद्धद्वारा विकास
अभिवृद्धि होती है और दूसरे पंथका उपकार होता हैं । जो इससे विपरीत आचरण रखता है वह अपने पंथकी हानि करता है और दूसरे पंथका अपकार करता है । जो कोई अपने पंथका गौरव एवं दूसरे पंथी निन्दा करता है वह अपने पंथकी भक्ति के कारण वैसा करता है; क्योंकि वह अपने पंथका बखान करना चाहता है । ।
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इस प्रकारके विपर्यासके कारण प्रारंभ में इन दो संप्रदायोंको थोड़ा-सा लाभ भले ही पहुँचा हो, मगर उससे उनकी असहिष्णुता बढ़ती गई और उसके कारण उनमें फूट पड़कर ये दोनों संप्रदाय क्षीण हो गये । इस प्रकार अशोकका यह कथन सत्य साबित हुआ कि ' अत्त पासण्डं छनति ' अथवा ' उपहनति ' ।
उस ज़मानेमें नन्दवच्छ, किस संकिच्च और मक्खलि गोसाल ही जिन थे । अर्थात् आजीवकोंको ही जैन कहना चाहिए । परंतु अनेक कारणोंसे उस संप्रदायका ह्रास होता गया और निर्ग्रथ लोग अपने ही तीर्थंकरको सच्चा जिन मानने लगे और आगे चलकर अपनेको जैन कहलवाने लगे । बुद्धको भी बौद्ध लोग जिन कहते थे, परंतु उन्होंने उस नामको अधिक महत्त्व नहीं दिया, एक तरहसे यह अच्छा ही हुआ; वरना इस विषयमें बड़े झगड़े हो जाते कि सच्चे जैन कौन हैं ।
चातुर्याम धर्मका बुद्धद्वारा विकास
इसका उल्लेख ऊपर आ चुका है कि वप्प शाक्य निर्ग्रथों का श्रावक था । इससे यह स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थोंका चातुर्याम धर्म शाक्य देशमें प्रचलित था । परंतु ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उस देशमें निर्ग्रन्थोंका कोई आश्रम हो । इससे ऐसा लगता है कि निर्ग्रन्थ श्रमण
+ अशोकका बारहवाँ शिलालेख ।
* देखिए पृष्ठ १४