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आजीवक मतका विपर्यास
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कार्य करने को प्रवृत्त होता है। किसीको डाक्टरी पसन्द आती है तो किसी को राजनीति, अतः मक्खलि गोसालको केवल नियतिवादी ठहराकर उसकी हँसी उड़ाना अत्यंत अनुचित है । यह बात विशेषतः जैन ग्रंथकारों ने की है। जैनोंके कहनेके अनुसार गोसालका मत यदि त्याज्य होता, तो
एक प्रोटेस्टंट पादरी लंदनकी गलियोंमें आवारा भटकनेवाले तीन हजार लड़कोंको जमा करके उन्हें कनाडा ले गया और वहाँ एक बड़े खेतपर उन्हें रखकर उनकी शिक्षा-दीक्षाका अच्छा प्रबन्ध किया । ये लड़के इंग्लैंडमें यों ही बेकार भटकते रहते, तो उनमेंसे अधिकतर समाज के लिए ख़तरनाक बन जाते; परंतु कनाड़ाके खुले खेतोंमें उनकी परवरिश बहुत अच्छी हुई और उनमेंसे एक भी गुनहगार नहीं निकला ।
प्रथम महासमरके बाद रूसमें लाखों बच्चे लावारिस बनकर इधर-उधर भटकने लगे । उनकी बेहद अधोगति हुई । उन्हें सुधारनेके लिए देरज़न्स्की नामक सोविएत कमिसारने उपनिवेश बसाये । उनमेंसे खारकोव शहरके पासका बड़ा उपनिवेश मैंने सन् १९३२ ईसवी में देखा था । इस उपनिवेशमें सौ-डेढ़ सौ लड़कियाँ थीं और दो सवा दो सौ लड़के । उनके लिए तीन सौ एकड़ खेती और बोअरिंग मशीनें तैयार करनेका कारखाना था । इस कारखाने में एक साथ ४० लड़के काम सीखते थे । हर रोज़ चार घंटे बौद्धिक शिक्षा और चार घंटे खेती-बाड़ी या कारखानेमें यंत्र बनानेका काम बारी-बारी से सिखाया जाता था । लड़कियोंकी बस्ती अलग थी और लड़कोंकी अलग । मगर सबके लिए एक नाट्यगृह था और बीच बीच में वहाँ विद्यार्थी और विद्यार्थिनियाँ नाटक खेला करती थीं । उनका अन्तर्गत प्रबन्ध वे स्वयं ही देखें ऐसा नियम था । और जबतक कोई ख़ास ज़रूरत न आ पड़ती, अध्यापक गण उनके प्रबन्धमें हस्तक्षेप नहीं करते थे | कुल प्रबन्ध इतना अच्छा था कि सनाथ बच्चोंको भी उनके माँ-बाप इस बस्ती में भेजनेको उत्सुक रहते थे; परन्तु उन्हें दाखिल कराना संभव नहीं था । इस बस्ती के बच्चोंको अगर पहलेकी तरह भटकने दिया जाता तो उनमेंसे बहुत-सारे बच्चे खतरनाक गुनहगार बन जाते । ऐसे बच्चोंको देरज़ेन्स्कीने कैसे सुधारा, इसका इतिहास बड़ा दिलचस्प है ।