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लोग कहते थे कि कोरी नीति - शिक्षामें मनुष्य के हृदयको पूर्णतया क़ाबू में कर लेनेका सामर्थ्य नहीं है । सामान्य नीति - शिक्षा मनुष्यको यह बता सकती है कि संसार में कैसे रहना चाहिए, पर वह यह नहीं बतला सकती कि वैसा क्यों रहना चाहिए । वह शक्ति तो धर्म में ही है । ईश्वरदत्त या ईश्वरप्रेरित धर्मग्रन्थ अथवा ईश्वरके किसी प्रेषित - पैगंबरपर श्रद्धा रखे बिना, और परमात्मा या कमसे कम अन्तरात्मा के जैसे स्थायी तत्त्वको आधारके तौरपर स्वीकार किये बिना मनुष्यके हाथों आत्म-समर्पण या आत्म - बलिदान जैसा दिव्यकर्म हो ही नहीं सकता । जीवनका अन्तिम आधार किसी गूढ़, अतीन्द्रिय, अनश्वर तत्त्वपर न हो, तो मनुष्यको श्रद्धारूपी पाथेय मिल ही नहीं सकता और श्रद्धा के बिना उच्च जीवन सम्भव ही नहीं हो सकता ।
इसके विपक्ष में यह कहा जा सकता है कि चातुर्याम धर्म में जिस प्रकार आत्माका स्वीकार नहीं है, उसी प्रकार उसका निषेध भी नहीं है । चातुर्याम धर्म व्यक्ति एवं समाज के लिए संपूर्ण धर्म है । जो कोई आत्मा-परमात्माका आधार चाहे, वह उसे अवश्य ले ले | चातुर्याम धर्मको ऐसे आधारकी आवश्यकता नहीं है । धर्मानन्दजी कहते हैं कि चातुर्याम ही हमारे दैवत हैं । वेदान्त कहता है कि विश्वात्मैक्यको स्वीकार किये बिना कोई भी समाज धर्म सिद्ध नहीं हो सकता । अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अहिंसा विश्वात्मैक्य पर ही आधारित हैं और विश्वात्मैक्य ही परम सत्य है । इस सत्य से भिन्न अन्य ईश्वर नहीं है ।
परन्तु इस चर्चा में उतरनेके लिए बौद्ध धर्मानन्द तैयार नहीं थे । हम भी थोड़ी देर के लिए इस चर्चाको छोड़कर उनके इस पारमार्थिक निबन्धका श्रद्धा-प्रज्ञा-पूर्वक परिशीलन करें ।
- काका कालेलकर