Book Title: Parshwanath ka Chaturyam Dharm
Author(s): Dharmanand Kosambi, Shripad Joshi
Publisher: Dharmanand Smarak Trust

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म इसका अर्थ यह है कि ऋषभदेवके अनुयायी सीधे किन्तु जड़ होनेसे और वर्धमानके अनुयायी वक्र एवं जड़ होनेसे वे दोनों तीर्थैकर पंचमहाव्रतोंके धर्मका उपदेश देते हैं; आर बीच बाईस तीर्थकरोंके अनुयायी सीधे (सरल) और प्रज्ञावान् होनेसे वे तीर्थंकर केवल चातुर्याम धर्मका उपदेश देते हैं । १६ केशीने दूसरा प्रश्न यह पूछा कि, अचेलओ अ जो धम्मो जो इमे संतरुत्तरो । देसिओ वडमाणेण पासेण य महामुनी ॥ P एक - कज्ज -पवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं । लिंगे दुविहे मेहावी कहं विप्पच्चयो न ते ॥ [ अर्थात् हे महामुनि, वर्धमानने अचेलक ( दिगंबर ) धर्म और पार्श्वने तीन, दो या एक वस्त्र रखनेका धर्म प्रचारित किया । एक कार्यमें उद्यत हुए इन दोनोंमें यह फर्क क्यों ? हे मेधावी, इस द्विविध लिंगके विषयमें तुम्हे शंका कैसे नहीं आती ? ] इसपर गोतम बोले: विन्नाणेण समागम्म धम्मसाहणमिच्छियं । पच्चयत्थं च लोगस्स नाणाविह विकप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगपओअणं ॥ [ अर्थात् केवल ज्ञानसे सम्पन्न होकर ( इन दो तीर्थंकरोंने) लोगोंके विश्वासके लिए, शरीरयात्राके लिए और ज्ञानलाभके लिए विभिन्न लिंगप्रयोजनोंका उपदेश किया । ( उत्तराध्ययन, २३ वाँ अध्ययन ) ] चातुर्यामका पंचमहाव्रतमें और सचेलक व्रतका अचेलकत्रतमें परिवर्तन करने के लिए यहाँ दिये हुए कारण जोरदार दिखाई नहीं देते और उनसे ऐसा लगता है कि यह सम्वाद भी काल्पनिक ही होगा । परंतु समञ्ञ फलमुत्तमें निर्ग्रथोंका वर्णन ' चातुर्याम संवरसंवुतो' कहकर

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136