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क्या पार्श्वनाथ ऐतिहासिक नहीं थे ?
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जैन ग्रंथोंमें अनेक स्थानोंपर यह उल्लेख पाया जाता है कि इन प्राचीनतर निर्ग्रथोंके नेता पार्श्वनाथ थे। उनमेंसे एक महत्त्वपूर्ण उद्धरण यहाँ दिया जाता है ।
: पार्श्व तीर्थकरका ख्यातनाम शिष्य केशी अपनी बड़ी शिष्यशाखाके साथ श्रावस्ती गया और तिन्दुक नामके उद्यानमें ठहरा । वर्धमान तीर्थं - करका प्रसिद्ध शिष्य गोतम भी बहुत-से शिष्योंके साथ श्रावस्ती पहुँचा और कोष्ठक नामके उद्यानमें ठहर गया । उन दोनोंके शिष्यसंघों में इन दो संप्रदायोंके मतान्तरके सम्बन्धम चर्चा होने लगी । तब यह जानकर कि ज्येष्ठ कुल केशीका है, गोतम अपनी शिष्यशाखाके साथ तिन्दुक उद्यान में पहुँचे और उन्होंने केशीसे भट की । उस समय केशीने यह प्रश्न पूछा कि, चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिए ।
देसिओ वडूमाणेण पासेण य महामुणी ॥
एक कज्जपवन्नानं विसेसे किं नु कारणं । धम्मे दुविहे मेहावी कथं विप्पच्चयो न ते ॥
[ हे महामुनि, चातुर्याम धर्मका उपदेश पार्श्वने किया और पंचत्रतोंके उसी धर्मका उपदेश वर्धमानने किया । एक ही कार्यके लिए उद्यत हुए इन दोनोंमें यह फर्क क्यों है ? हे मेधावी, इस द्विविध धर्मक विषय में तुम्हें कैसे शंका नहीं आती ? ] इसपर गोतम बोले,
पुरिमा उज्जुज़ड्डाउ वक्कजड्डाय पच्छिमा ।
मज्झिमा उज्जुपन्नाउ तेण धम्मे दुहा कए ॥
[ प्रथम तीर्थकरके अनुयायी ऋजु - जड़ होते हैं और अंतिम तीर्थंकर के अनुयायी वक्र- जड़; परंतु मध्यम बाईस तीर्थकरोंके होते हैं; इसलिए दो प्रकारका धर्म होता है । ]
अनुयायी ऋजु -प्रज्ञ