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मेरा यह प्रयत्न इसीलिए है कि साम्प्रदायिकताके चंगुल से निकलकर हम चातुर्याम धर्मका महत्त्व समझ जायँ और उस धर्मके आचरणसे मानव-समाजका कल्याण करनेमें समर्थ हों । इसमें जो दोष हों उन्हें अवश्य सुधारें और गुण ग्रहण करके आत्म-पर-हिततत्पर हों, यही मेरी सबसे प्रार्थना है ।
बनारस २९, जून १९४६.
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धर्मानन्द