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आपसमें सदा झगड़ते रहनेवाले मूर्तिपूजक श्वेताम्बर, स्थानकवासी श्वेताम्बर और दिगम्बर मेरे विरोधके लिए एक हो गये। मेरे साथ वाद-विवाद करनेके लिए भी अनेक जैन साधु और गृहस्थ तैयार हुए । उन सबको अलग-अलग उत्तर देना असम्भव था । अतः मैंने उनसे गुजराती दैनिक 'जन्मभूमि' के द्वारा प्रार्थना की कि वे हाईकोर्टके किसी गुजराती जजको सरपंच चुनें और उनके सामने सारे आक्षेप रखें, तब मैं अपने पक्षका समर्थन करूँगा। उसे सुनकर सरपंच अपना निर्णय दे दें। यह निर्णय यदि मेरे विरुद्ध हो तो मैं जैनोंसे जाहिरा तौरपर माफी माँगूं; और यदि उन जैनियोंके प्रतिकूल हो तो वह निर्णय समाचार-पत्रोंमें प्रकाशित कर दिया जाय, जिससे कि भविष्यमें यह वाद ही नहीं रहे । पर जैनोंको यह बात पसन्द नहीं आई और आखिर वह आन्दोलन अपने आप खत्म हो गया। फिर भी बीच-बीचमें कोई न कोई सनातनी जैन अंटसंट पत्र लिखनेकी तकलीफ लेता ही रहता है।
परन्तु मेरे ये जैन भाई एक क्षणके लिए भी यह विचार नहीं करते कि जैनधर्मका रहस्य मांसाहार न करनेमें है या चातुर्याम धर्ममें । यदि चातुर्याम धर्ममें है तो क्या उसके अनुसार इस समयके जैन साधु और गृहस्थ आचरण करते हैं ? उदयपुरके केसरियानाथ नामक जैन मन्दिरमें श्वेताम्बरों और दिगम्बरोंने एक दूसरेपर गोलियाँ चलाकर हत्याएँ कीं। संमेदशिखरके पार्श्वनाथ मंदिरकी पूजाको लेकर हमेशा मुकदमा चलते रहते हैं; और वे अक्सर प्रीवी कौन्सिल तक जाते हैं। आजतक इन मुकदमोंमें लाखों रुपये खर्च हुए हैं और कोई कह नहीं सकता कि आगे कितने खर्च होंगे। गिरिनार आदि स्थानोंमें भी ये झगड़े चल रहे हैं। मगर कोई सनातनी जैनी यह नहीं सोचता कि ये चातुर्यामसे कितने असंगत हैं। उन्होंने मुझपर इतनी तोहमतें लगाई, तो भी उनके प्रति मेरा प्रेम कायम ही है। यह दोष उनका नहीं बल्कि सांप्रदायिकताका है और सांप्रदायिकतासे बौद्ध एवं ईसाई भी अलिप्त नहीं हैं। ईसाइयोंने तो आपसमें लड़कर खूनकी नदियाँ बहाई हैं । अतः जैनियोंको ही दोष क्यों दिया जाय? परन्तु ऐसी सांप्रदायिकतासे मुक्त होनेकी चेष्टा करना हमारा कर्तव्य है।