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पार्श्वनाथका धर्मोपदेश
वेश्या-अथवा-परस्त्री-गमन, कुमारी अथवा विधवा-गमन, दूसरोंका ब्याह (या प्रेम ) कराना, स्त्रीसंगका अतिरेक और अप्राकृतिक मैथुन -ये ब्रह्मचर्य अणुव्रतके पाँच अतिचार वर्ण्य किये जायँ । ___ धन-धान्योंका, सामान्य धातुओंका, गायों-घोड़ों आदि जानवरोंका, खेती-बाड़ी और घरों एवं सोने-चाँदीका निश्चित सीमासे अधिक संग्रह करना—ये अपरिग्रह अणुव्रतके पाँच-अतिचार वर्ण्य किये जायें।
दिग्विरतिका अर्थ है अमुक दिशामें अमुक सीमाके पार न जाना । देशविरतिका अर्थ है अमुक गाँव या प्रदेशमें न जाना । काया, वाचा
और मनके प्रयोगको दण्ड कहते हैं* । उनका दुरुपयोग करना अनर्थदण्ड है । उससे विरति अनर्थदण्डविरति है। ये तीन विरतियाँ पाँच अणुव्रतोंके लिए गुणकारी हैं। इसलिए इन्हें गुणव्रत कहते हैं।
ऐसे काल और स्थानमें मैं इस व्रत या इन व्रतोंका आचरण करूँगा, इस प्रकारका नियम करना सामायिक व्रत है । दो अष्टमियाँ और दो चतुर्दशियाँ मिलाकर चार प्रोषध दिन होते हैं । उस दिन पवित्र स्थानमें जाकर उपवास करना प्रोषधव्रत है। खाने-पीनेको उपभोग कहते हैं और ओढ़ना,बिछौना, वस्त्र, शयन, आसन घर आदि परिभोग हैं। उसमें परिमाण ( उचित मात्रा) रखना उपभोग-परिभोग-परिमाणवत है। अतिथियों और साधुओंको भिक्षा देना अतिथि संविभागवत है । ये चार व्रत पाँच अणुव्रतोंकी शिक्षा देते हैं, इसलिए इन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं।
यह उपदेश सुनकर बहुत-से लोगोंने, वामादेवीने, प्रभावतीने और हस्तिसेनको राज्य देकर अश्वसेनने भी प्रव्रज्या ले ली।
* मज्झिमनिकाय उपालिसुत्त देखिए ।