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पश्चसंग्रह
कि परिमाण ५०० श्लोकोंसे भी अधिक है। पांचों ही प्रकरणोंके प्रारम्भमें स्वतन्त्र मङ्गलाचरण किया गया है और उसके साथ ही प्रतिपाद्य विषयके निरूपणकी प्रतिज्ञा की गई है।
पाँचों प्रकरणोंकी उपर्युक्त स्थितिमें यह बात असंदिग्ध रूपसे सिद्ध हो जाती है कि प्रस्तुत ग्रन्थमें संगृहीत पाँचों ही प्रकरण संग्रहकारको पूर्व परम्परासे प्राप्त थे और उन्हें संक्षिप्त एवं अर्थ-बोधकी दृष्टिसे दुर्गम देखकर उन्होंने उनपर भाष्य-गाथाएँ रची, और उन पूर्वागत पाँचों प्रकरणोंके वही नाम रखकर अपने संग्रहको पञ्चसंग्रहका रूप दिया। पर जहाँ तक मेरी जानकारी है, संग्रहकार या भाष्य-गाथाकारने अपने शब्दोंमें 'पञ्चसंग्रह' ऐसा नाम कहीं भी प्रकट नहीं किया है। उक्त प्रकरण एक साथ एक ही आचार्यके द्वारा
के साथ निबद्ध होनेके पश्चात ही परवर्ती विद्वानोंके द्वारा 'पञ्चसंग्रह' नाम प्रचलित हआ प्रतीत होता है।
पञ्चसंग्रहकार कौन ? प्रस्तुत ग्रन्थके पांचों मूल प्रकरणोंके रचयिताओंके नाम अभी तक अज्ञात ही हैं। हाँ, श्वेताम्बर विद्वान् शिवशर्मको शतकका निर्माता मानते हैं। शतकको मुद्रित चूणिके प्रारम्भिक अंशसे भी इस बातकी पुष्टि होती है । किन्तु शेष चारों प्रकरणोंके रचयिताओंका कुछ भी पता नहीं चलता है। साथ ही जिन शतक और सप्ततिका इन दो प्रकरणोंपर प्राकृत चूणियाँ उपलब्ध हैं, उनके रचयिताओंका भी अभी तक कोई पता नहीं है। इससे पञ्चसंग्रहके मूल प्रकरणों और उनकी चूर्णियोंकी प्राचीनता, प्रामाणिकता और उभय सम्प्रदायमें मान्यता सिद्ध है।
पञ्चसंग्रहके ऊपर भाष्य-गाथाएँ रचनेवाले और पांचों प्रकरणोंको एकत्र निबद्ध करनेवाले आचार्यका नाम भी अभीतक अज्ञात ही, जब तक कोई आधार या प्रमाण स्पष्ट रूपसे सामने नहीं आ जाता है, तब तक उसके कर्ताके विषयमें कल्पना करना कोरी कल्पना ही समझी जायगी। इसलिए उसपर विचार न करके यह विचार करना उचित होगा कि पञ्चसंग्रहके ऊपर भाष्य-गाथाएँ रचनेवाले आचार्य किस समयमें हुए हैं ?
प्रस्तुत ग्रन्थके पांचों मूल प्रकरणोंको रचना कर्मप्रकृति या कम्मपयडीके आस-पास होना चाहिए। और यतः कर्मप्रकृतिके रचयिता शिवशर्म ही शतकके भी रचयिता माने जाते हैं, और इनपर रची गई चूणियाँ भी यतः इनके कुछ समय बाद ही रची गई प्रतीत होती हैं, अत: उन मूल प्रकरणोंकी रचनाका काल भी शिवशर्मके लगभगका माना जा सकता है। इस प्रकार शिवशर्मके कालको मूल पञ्चसंग्रहकारके कालकी पूर्वावधि कहा जा सकता है।
धवला टीकामें जीवसमास नामके साथ जिस 'छप्पंचणवविहाणं' इत्यादि गाथाका उल्लेख आया है । वह गाथा ज्यों-की-त्यों प्रस्तुत ग्रन्थके जीवसमास प्रकरणमें पायी जाती है, अतः उक्त प्रकरणका रचना-काल धवला टीकासे पूर्व होना चाहिए। यतः श्वे० पञ्चसंग्रहकार चन्द्रषिके सामने दि० सभाध्य पञ्चसंग्रह विद्यमान था, जैसा कि हम पहले सिद्ध कर आये हैं, अत: उनके पूर्व इसकी रचनाका होना सिद्ध है । शतक चूर्णिमें एक स्थलपर जो गाथा-गत पाठ-भेदका उल्लेख किया गया है, उससे सिद्ध होता है कि उक्त चूणिके पूर्व सभाष्य पञ्चसंग्रह रचा जा चुका था । शतक-गत वह गाथा इस प्रकार है
आउक्कस्स पएसस्स पंच मोहस्स सत्त ठाणाणि ।
सेसाणि तणुकसाओ बंधइ उक्कोसगे जोगे ॥१३॥ इस गाथाको चूणिमें "अन्ने पढंति आउक्कस्स छ त्ति'...."अन्ने पढंति मोहस्स णव उ ठाणाणि" इस प्रकारसे आयुकर्म और मोहकर्म सम्बन्धी स्थानोंके दो पाठ-भेद आये है। ये दोनों पाठ-भेद दि० पञ्चसंग्रहके चौथे शतक प्रकरणमें इस प्रकार पाये जाते हैं
१. केण कयं ?...'अणेगवायसमालद्धविजएण सिवसम्मायरियणामधेज्जेण कयं इत्यादि, (शतक चूर्णि गा० १, पत्र । २. धवला पु. ४, पृ० ३१५।
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