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(३१) प्र० - क्या सब अवस्था में नमस्कार का स्वरूप एक सा ही होता है ?
उ०- नहीं । इस के द्वैत और अद्वैत, ऐसे दो भेद हैं । विशिष्ट स्थिरता प्राप्त न होने से जिस नमस्कार में ऐसा भाव हो कि मैं उपासना करने वाला हूँ और अमुक मेरी उपासना का पात्र है, वह द्वैत - नमस्कार है । राग-द्वेष के विकल्प नष्ट हो जाने पर चित्त की इतनी अधिक स्थिरता हो जाती है कि जिस में आत्मा अपने को ही अपना उपास्य समझता है और केवल स्वरूप का ही ध्यान करता है, वह अद्वैत- नमस्कार है ।
(३२) प्र० - उक्त दोनों में से कौन सा नमस्कार श्रेष्ठ है ? उ०- अद्वैत । क्यों कि द्वैत - नमस्कार तो अद्वैत का साधनमात्र है ।
(३३) प्र० - मनुष्य की बाह्य प्रवृत्ति, किसी अन्तरङ्ग भाव से प्रेरी हुई होती है। तो फिर इस नमस्कार का प्रेरक, मनुष्य का अन्तरङ्ग भाव क्या है ? उ०- भक्ति ।
(३४) प्र० - उस के कितने भेद हैं ?
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उ०- दो । एक सिद्ध-भक्ति और दूसरी योगि-भक्ति | सिद्धों के अनन्त गुणों की भावना भाना सिद्ध-भक्ति है और योगियों (मुनियों) के गुणों की भावना माना योगि-भक्ति ।
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