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बाह्य श्राभ्यन्तर-निर्मन्थता आदि नैश्चयिक और पारमार्थिक स्वरूप समान होता है । पर व्यावहारिक स्वरूप तीनों का थोड़ा-बहुत भिन्न होता है । आचार्य की व्यावहारिक योग्यता सब से अधिक होती है। क्यों कि उन्हें गच्छ पर शासन करने तथा जैनशासन की महिमा को सम्हालने की जवाबदेही लेनी पड़ती है। उपाध्याय को आचार्यपद के योग्य बनने के लिये कुछ विशेष गुण प्राप्त करने पड़ते हैं जो सामान्य साधुओं में नहीं भी होते ।
(२६) प्र० - परमेष्ठियों का विचार तो हुआ। अब यह बतलाइये कि उन को नमस्कार किस लिये किया जाता है ? उ०- गुणप्राप्ति के लिये । वे गुणवान् हैं, गुणवानों को नमस्कार करने से गुण की प्राप्ति अवश्य होती है। क्यों कि जैसा ध्येय हो ध्याता वैसा ही बन जाता है। दिन-रात चोर और चोरी की भावना करने वाला मनुष्य कभी प्रामाणिक ( साहूकार ) नहीं बन सकता। इसी तरह विद्या और विद्वान की भावना करने वाला अवश्य कुछ-न-कुछ विद्या प्राप्त कर लेता है ।
(३०) प्र० - नमस्कार क्या चीज हैं ?
उ०- बड़ों के प्रति ऐसा वर्ताव करना कि जिस से उन के प्रति अपनी लघुता तथा उन का वहुमान प्रकट हो, वही नमस्कार है ।
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