Book Title: Osvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Author(s): Mahavirmal Lodha
Publisher: Lodha Bandhu Prakashan

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Page 12
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (viii) Paayas Arunvijay Maharaj 16 Aug., 1999 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूना श्री आदीश्वर जैन मंदिर आदिनाथ सोसायटी पूना सतारा रोड़ पूना - 421037 इतिहास की कड़ी जोडने वाला आधार स्तम्भ ग्रंथ " जैन मत और ओस वंश" प्रस्तुत ग्रन्थ के अवलोकन का अवसर मिला। काफी वर्षों से मन में एक ऐसी जिज्ञासा आकार लेती थी कि ...... . जैन धर्म के चौबीसों तीर्थंकर क्षत्रिय थे और उनके ही वंशज आज हम सब अब कोई क्षत्रिय नहीं है। आखिर क्यों और कैसे ? आज क्षत्रियों में जैन धर्म का नामोनिशान नहीं रहा है और अब कोई क्षत्रिय या राजपूतादि कोई जैन धर्म के पद पर भी नहीं आते हैं। मात्र ढाई हजार वर्षों के अन्तराल काल में इतना ह्रास कैसे हो गया ? बड़ा आश्चर्य एवं असमंजस का विषय है। - काफी लम्बी-चौड़ी जिज्ञासा कई वर्षों से बनी रही कि. हम आज ओसवाल या पोरवाल हैं, आखिर क्यों ? यह गोत्र कैसे बना ? यह हमारा वंश कैसे चला ? क्या हम ही तो क्षत्रियों के परिवर्तित रूप वाले तो नहीं हैं? अगर इन रहस्यों का पता चले और यह तथ्य उजागर होकर सामने आए कि 'हम ही क्षत्रियों के परिवर्तित रूप वाले हैं और क्षत्रिय हमारे पूर्वज थे तो हमें जरूर गौरव होगा और आनन्द भी होगा। धर्मलाभ ! आज जब श्रीमान चंचलमलजी लोढ़ा स्वयं यह पुस्तक लेकर पूना पधारे और मुझे मिले, प्रस्तुत पुस्तक हाथ में दी तथा मौखिक कुछ बात भी बताई तब लगा कि अनेक वर्षों की उपरोक्त जिज्ञासा संतोषने का अवसर आया है। पूरा समय मिलने पर अक्षरश: पूर्ण अवलोकन करूँगा और आगे प्रगट होने वाला द्वितीय तृतीय भाग भी जरूर देखूँगा। तब काफी समाधान होगा, ऐसी आशा है। For Private and Personal Use Only सचमुच तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने वंश-गोत्रादि के इतिहास की जानकारी रखनी ही चाहिए। मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास भी है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के अवलोकन से ओसवालों को स्वगोत्र- वंश आदि की उत्पत्ति एवं वृद्धि आदि की संतोषप्रद सामग्री मिलेगी। उससे काफी आनंद होगा। इस प्रयास के लिए श्रीमान चंचलमलजी लोढा एवं लेखक महावीरमलजी लोढा-उभय बंधुओं ने जो पुरुषार्थ किया है, वह वास्तव में सराहनीय है, प्रशस्य है। मैं बंधुओं को हार्दिक आशीर्वाद के साथ शत्-शत् अभिनंदन देते हुए प्रस्तुत प्रयास की काफी सराहना करता हूँ और आशा करता हूँ कि इतिहास की कड़ी जोड़ने में प्रस्तुत ग्रन्थ आधारस्तम्भ बनेगा। अभागविजय अरुणविजय

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