Book Title: Nandanvan Kalpataru 2004 00 SrNo 11
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 20
________________ Jain Education International पञ्चमः प्रबन्धः पञ्चदशोऽधिकारः योगस्वरूपम् [प्रहर्षिणी] अविदितवरयोगसत्स्वरूपो, भ्रमति भवे कुशलां क्रियां दधानः । न हि भवति गतामयः कुपथ्यं, त्यजति न यावदुपायसावधानः ॥१॥ विविधविधिविधानवर्यभावां, चरति शरीरविलेखिनीं क्रियां सत् । स हि सुखमधिगच्छतीद्धरूपं, सुरगतिसम्भवमाशु बाह्ययोगात् ॥२॥ यदपि वसति संसृतौ क्रियाया, विरमति नैव तथाऽपि कर्मबन्धात् । तदपकृतिकृते नितान्तमात्मा, शुभविधिमाचरति प्रशान्तचित्तः ॥३॥ क्रमश उदयमाप्नुवन् सुयोगात्, प्रविशति सत्तमयोगवर्त्मनीष्टम् । भ्रमणमिह ततस्ततं विनश्येत्, शिवपदमुत्तममाश्रयेत् सुखेन ॥४॥ कलुषितहृदयो भवेत् कषायाद् हृदयविशुद्धिरनाविला न मोहात् । For Private & Personal Use Only c* c* c* www.jainelibrary.org

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