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हम एकता के चाहे कितने ही नारे लगांय, ऊपरी एकता से कितने ही प्रसन्न हो लें किन्तु उच्च स्तर पर निर्णय लेने से पूर्व शीघ्रता न की होती, गम्भीरता से कुछ सोचा होता, सबको साथ लेकर चलने के उत्साह में विगत इतिहास और परम्परागों का भी ध्यान रखा होता वह सब न घटित होता जो आदरणीय वयोवृद्ध सामाजिक ही नहीं हमारे राष्ट्रीय नेता श्री रांकाजी के साथ बार-बार घटित होता रहा। भला किस समझदार व्यक्ति का सिर समाज में ऐसी घटनाएं घटित होने पर शर्म से झुक न जायगा।
हम सहमत हैं कि महावीर के उपदेश आज उसी रूप में हमारे सामने नहीं हैं। उनमें बहुत कुछ मिला दिया गया है और वह प्रयत्न अभी भी समाप्त नहीं हुवा है । इस क्षेत्र में पर्याप्त शोध खोज की आवश्यकता है। परिस्थितियां भी इस समय परिवर्तित हैं। यह भी सच है कि महावीर ने जितना जाना उतना उन्होंने नहीं कहा क्योंकि शब्द सामर्थ्य सीमित होती है । इसी तरह यह भी सच है कि जितना उन्होंने कहा उतना लिखा नहीं गया। किन्तु सचाई को परखने की एक कसौटी उन्होंने हमारे हाथ में दी
और वह कसौटी है-विचारों में अनेकान्तात्मकता, वाणी में स्याद्वाद और आचरण में अहिंसा । जो इस कसौटी पर खरा नहीं उतरे वह चाहे कितना ही चमके, कितना ही मन को लुभाये, कितना ही नेत्रों को ललचाये सब अधर्म है, पाखण्ड है, धोखा है ।
खेद है ग्राज इस कसौटी में ही परिवर्तन के प्रयास चालू हैं । साधुओं के लिए नई आचारसंहिताओं के निर्माण की आवाज उठाई जा रही है जिससे उनके शिथिलाचार का पोषण हो सके, आधुनिकता के नाम पर वे राजाओं और श्रीमन्तों की तरह ठाठ-बाट से रह सके, धर्म नहीं राजनीति उनके जीवन में उतरे, प्राचार नहीं उनकी लफ्फाजी से उनकी परख हो, गृहस्थों की तरह ही वे नहा धो सकें, इत्र फुलेल राग रंग का प्रयोग कर सकें, परीषह सहन करने का कष्ट उन्हें न व्यापे, वे आपस में मारपीट कर सकें, उन पर फौजदारी मुकदमे तक चल जाय फिर भी उनके साधुत्व अथवा मुनित्व में कोई फर्क न पावे।
__ कितनी दयनीय, शोचनीय स्थिति है यह ? एक विख्यात लेखक के शब्दों में"धर्म तो काल और परिस्थिति से ऊपर की वस्तु है। यदि इसकी रूपरेखा को हम समय-समय पर परिस्थिति के अनुकूल बनाते चले जावें तो धर्म और अधर्म में भेद ही क्या रह जायगा। समय पड़ने पर हम अधर्म को धर्म समझ बैठेंगे।"
___ परिस्थितियों की दुहाई देकर आचार्य उमास्वाति के सूत्रों के अर्थ परिवर्तन का जो भीषण षड्यन्त्र चल रहा है उसके पीछे यह ही राज है । हे पंडित, तू मेरी प्रशंसा कर, मुझे प्रशंसा के उच्च शिखर पर चढ़ा दे, मेरा आचरण मत देख, उससे तुझे क्या लेना
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