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अरिहंत के सर्वसामान्य नाम ।
अर्थ
३०३ ५वी गाथा की व्याख्या: रज मल के ૐ * पसीयन्तु पद से प्रार्थना नहीं है। ३०४ वीतराग से प्रार्थना में अनुचित अर्थापत्ति ३०५ आर्यवचन अनुचित अर्थापत्तिवाला नहीं ।
३०६ फल के प्रति स्तुति विषय का महत्त्व | * गाथा ६ की व्याख्या ३०५ द्रव्यसमाधि भावसमाधि
३०८ प्रार्थना की अनुपपत्ति * निदान का लक्षण अभिष्वङ्ग * मोहाधीन - आशंसा
३१० मोहगर्भ निदान का स्वरुप
धर्म में १, आत्महितकारित्व • २, भौतिक समृद्धिदायित्व | ३१४ तीर्थंकरपन के निदान का भी निषेध
अग्नि-चिंतामणि के दृष्टान्त से अर्हत् उपासना सफल * क्षीणक्लेशा एते'.... ५ श्लोक ।
३१४
ऐसे निदान के निषेध में निदान की दूषितता
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३१३ पुरुषार्थ के उपयोगी व घातक जीवाजीव गुण * प्राकृत लोगों का भी विवेक
धर्म प्रारम्भ व अंत में सुन्दर चित्तपरिणाम
आरोग्यादि = आशंसा सार्थक व निरर्थक, ४ भाषा । * चतुर्थभाषारुप प्रार्थना के सार्थक्य का समर्थक शास्त्र प्रमाण :- 'भासा असच्चमोसा'... ५ श्लोक ३१५ जिनभक्ति = उत्कृष्टगुण-बहुमान, यह कर्मनाशक सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं
३१६ सर्वलोकचैत्यार्थ कायोत्सर्ग
راب
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द्वेष
पुक्खखरदीवड्ढे सूत्र
२॥ द्वीप, धायइसंडे धम्मागरे नम॑सामि' पदों के अर्थ
३१५ श्रुत-स्तुति में जिन नमस्कार क्यों ?
३२० अपौरुषेय वचन का खण्डन * अपौरुषेयत्व असंभवित ३२१ अदृश्य वक्ता की आशंका दुर्निवार
३२२ जैन मत में अपौरुषेय वचन होने का आक्षेप ३२३ जैनों के द्वारा आक्षेप का परिहार `तप्पुविया अरहया' का तात्पर्य
आगमवचन त्रिरूप-अर्थ-ज्ञान- शब्दरुप
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सहज अर्थप्राप्ति के हेतु
बद्ध - स्पृष्ट-निधत्त निकाचित कर्म
श्रुतधर्म सीमाधर कैसे ?
प्रतिदिन ज्ञानवृद्धि का कर्तव्य
यह आशंसा उपादेय क्यों ? प्रणिधानरूप निराशंसाभाव बीज
३३२ श्रुतधर्म-वृद्धि से असङ्गद्वारा मोक्ष * प्रार्थना से श्रुतवृद्धि
०
३३३ शालिवृद्धि का दृष्टान्त
सुरगण ... देवदानव.... में पुनरुक्ति क्यों नहि ? जिनमत सिद्ध प्रतिष्ठित' एवं 'प्रख्यात' कैसे ?
३३८
३३८
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३३५ मोक्षाध्वदुर्गग्रहण : तमोग्रन्थिभेदानन्द : गृहान्धकारालोक: भवोदधिद्वीप
३३६ महामिथ्यादृष्टि को श्रुत का अर्थज्ञान नहीं, जैसे अयोग्य को चिन्तामणि- प्राप्ति
*
३३७ मिथ्यादृष्टि को द्रव्यश्रुत प्राप्ति स्थानास्थान राग 'अणुवओगो दव्वम्'
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प्रार्थना बीज के साथ जल क्या ?
श्रुतवृद्धि का कारण श्रुतार्थचिंतन है, प्रार्थना कैसे ? विवेक का महत्त्व, चिन्तामणि का दृष्टान्त फलदायी तो क्रिया होती है, ज्ञान नहीं चिन्तामणि भी स्वरूपतः फलदायी नहीं विवेक में अन्ययोगशास्त्रों के प्रमाण
अनन्तशः द्रव्यश्रुत प्राप्तिमूलक ग्रैवेयकस्वर्गप्राप्ति सुयस्स भगवओ' की व्याख्या
फलावश्यंभावः, -सर्वप्रवादमयता, -त्रिविध परीक्षांत्तीर्णता इन ३ ऐश्वर्ययुक्त, अतः भगवान, श्रुत अर्हत्प्रवचन ३४० त्रिविध परीक्षार्थ शास्त्रवचनयुगल के दृष्टान्त
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३४१
द्रव्य और पर्याय
० उत्पत्ति-विनाश - स्थैर्य
सिद्धाणं बुद्धाणं ० सूत्र
३४३ अनेकविध सिद्ध- 'पारगयाणं' नहीं कि अभव अमोक्षस्थ
‘परंपरगयाणं’ ‘अक्रमसिद्धत्व' मत खण्डन
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१४ गुणस्थानक
३४५ 'लोअग्गमुवगयाणं' मुक्ति तक गमन कैसे ? आगे क्यों नहीं ?
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