Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहां का सांस्कृतिक अध्ययन
तत्थ ठिएणं अह चोदसीए चेत्तस्स कण्ह पक्खम्मि । णिम्मविया बोहिकरी भव्वाणं होउ सव्वाणं ।। २८२.२३
'जब शक सम्वत् ७०० पूर्ण होने में एक दिन शेष था तब चैत्रवदी १४ के दिन अपराह्न काल में कुव० की रचना पूर्ण की, जो सभी भव्य लोगों को प्रतिबोध प्रदान करे । तत्कालीन लेखकों द्वारा प्रायः शक सम्वत् का उल्लेख किया जाता था । जिनसेन ने शक सम्वत् ७०५ एवं हरिषेण ने शक सम्बत् ८५३ का अपने ग्रन्थों में उल्लेख किया है । कुवलयमाला के शक सम्वत् के सम्बन्ध में डा० हर्मन जैकोबी ने विस्तार से प्रकाश डाला है। उनकी गणना के अनुसार कुव० की रचना २१ मार्च ७१९ ई० को लगभग एक बजे अपराह्न में पूर्ण हुई थी । यद्यपि जैकोबी ने अध्ययन पूर्वक यह गणना की है, किन्तु फिर भी कुछ विद्वानों ने इसमें शंका की है, जो० डा० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार निराधार है । '
Rao के रचना स्थल के सम्बन्ध में भी उद्द्योतनसूरि ने स्पष्ट उल्लेख किया है । उद्योतनसूरि आचार्य वीरभद्र के साक्षात् शिष्य थे। आचार्य वीरभद्र जावालिपुर (जालौर) में निवास करते थे, जहाँ के राजा का नाम श्री वत्सराज
हस्तिन् था । वीरभद्र आचार्य ने जावालिपुर में ऋषभ जिनेश्वर वा एक भव्य ऊँचा मंदिर बनवाया था । इसी मंदिर के उपासरे में बैठकर उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला कहा की रचना की थी । २
कुवलयमाला में उल्लिखित यह जावालिपुर आधुनिक जालोर है, जो जोधपुर नगर से ७५ मील दूर सुकरी नदी के बायें किनारे पर स्थित है । जालौर वर्तमान में भिल्लमाल से ३३ किलोमीटर दूर भिलदी- रनिवार-समदरी रेल्वेलाइन का स्टेशन है । उद्योतनसूरि ने जावालिपुर को तुंग अलंघ अष्टापदम् व श्रावककुलम् विशेषण से युक्त कहा है । वर्तमान में जालौर नगर सोवनगिरि या सोनगिरि पहाड़ी की तलहटी में बसा है, जो प्राचीन अनुश्रुति के अनुकूल है । लगभग दो हजार जैन वहाँ बसते हैं एवं एक दर्जन जैन मंदिर हैं, जिनमें चार मंदिर प्रसिद्ध हैं। इससे जालौर जैनधर्म का केन्द्र था, इस बात की पुष्टि होती है । -
9. Even though H. Jacobi had worked out the details about this date, some have expressed doubt about its correctness, of course, without offering any evidence to substantiate their view.
-Kuv. Int. p. 108 (Note).
२. जावालिउरं अट्ठावयं व अह अस्थि पुहईए । उसभ - जिणिदाययणं करावियं वीरभद्देण ॥ तत्थ ठिएणं अह - णिमविया बोहिकरी -- |
- कुव० २८२.२१, २३.