Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 10
________________ [ ] मय खेती और कहॉ निरारंभ सट्टा ! इस विचारधारा के कारण है शायद बहुत से जैन गृहस्थ कृषिकार्य से विमुख होकर सट्टा करते हैं और उमी में संतोष मानते हैं । इसमें तो संदेह ही नहीं कि कृषि करने में त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा होती है, और अगर जनधर्म सिर्फ साधुओं का ही धर्म होता तो यह भी निःसंकोच कहा जा था कि कृषिकर्म, जिनधर्म से असंगत है। मगर ऐसी बात नहीं है। जैनधर्म जैसे साधुओं के लिए है वैसे ही श्रावकोंगृहस्थों के लिए भी है। धर्म की उपयोगिता नीचे के स्तर ( Standard ) के जीवों को ऊंचे स्तर पर ले जाने में है । जा धर्म गृहस्थों के भी काम न आ सके वह धर्म ही कैसा ? अविरत सम्यग्दृष्टि, जा जैनाचार का तनिक भी पालन नहीं करता, सिर्फ जनधर्म पर श्रद्धाभाव ही रखता है, वह भी 'जनधर्मी ही कहलाता है । इस प्रकार जब गृहस्थ भी जैनधर्म का अनुयायी है तो प्रश्न उपस्थित होता है कि उसकी हिंसा की मर्यादा क्या है ? कृषिकर्स उस मर्यादा में है या उससे बाहर है ? शास्त्रों में हिंसा के मुख्य दो मेद बतलाये गये हैं( १ ) संकल्पजा हिंसा और ( २ ) आरम्भजा हिंसा | मारने की भावना से जानवृककर जो हिंसा की जाती है वह संकल्पना हिंसा कहलाती है, जैसे शिकारी की हिंसा |

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