Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla
Catalog link: https://jainqq.org/explore/010399/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website. Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility. If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द 'कृषिकर्म और जैनधर्म' नामक पुस्तक पाठकों के कर-कमलों में उपस्थित है। पुस्तक यद्यपि कद में छोटी है, किन्तु जिस विषय पर प्रकाश डालने के लिये वह लिखी गई है, उस विषय पर गहरा प्रकाश डालती हैं। इसमें तीन विद्वान् लेखकों के तीन निबंध संग्रहीत हैं। निबंधों की भाषा शिष्ट, सभ्य और मधुर है। साधारणतया विवादग्रस्त विषयों पर लिखते समय लेखक कभी कभी कटुता का प्राश्रय ले लेते हैं, परन्तु तत्त्व विचार की यह प्रणाली वांछनीय नहीं कही जा सकती। लेखकों को अपने विरुद्ध विचार रखने वालों के प्रति पूर्ण शिष्ट होना चाहिए। प्रसन्नता की बात है कि इस पुस्तक के लेखकों ने इसी पद्धति का अनुसरण किया है। कृषि के संबंध में हमारे यहाँ कुछ मनभेद चल रहा है। यदि निष्पक्ष और उदार दृष्टिकोण अपना कर इस विषय में विचार किया जाय तो मतैक्य होना कोई कठिन बात नहीं है। इस पुस्तक के तीनों निबंध इस विषय के मतभेद को दूर करने में उपयोगी होंगे, ऐसी आशा है। अच्छा तो यह होता कि किसी शास्त्रज्ञाता विद्वान् ने दूसरा पहलू भी उपस्थित किया होता, परन्तु किसी ने ऐला किया नहीं। बरेली (भोपाल) निवासी सेठ रतनलालजी नाहर ने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया था। वह चाहते थे कि कृषि के संबंध में जैन शास्त्रों का मन्तव्य हमारे सामने उपस्थित हो । उन्होंने इसके लिए पारितोषिक की घोषणा की और नि० लि. महानुभावों को निबंधपरीक्षक निर्वाचित किया Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) पं० अजितप्रसादजी जैन एम. ए. एल. एल. बी. भू. पू. जज बीकानेर हाईकोर्ट, सम्पादक अंग्रेजी जैन गजट, लखनऊ (२) शास्त्र ज्ञाता दानवीर सेठ भैरोंदानजी सेठिया, बीकानेर (३) .................. प्रतियोगिता में करीब १५ निबंध आये थे। उनमें से यह सर्व श्रेष्ठ तीन निबंध हैं । स्मरण रखना चाहिए कि इन निबंध की विरोधी विचारधारा का समर्थक एक भी निबंध प्राप्त नहीं हुपा था। हम प्रतियोगिता के आयोजक, लेखकों और परीक्षकों के आभारी हैं, जिनके सहयोग से यह पुस्तक प्रकाश में आ सकी है। आशा है, जिस सद्भावना के साथ पुस्तक प्रकाशित की जा रही है, पाठक उसी सदभावना से इसे अपनाएँगे तो विचार की अच्छी सामग्री उन्हें प्राप्त होगी। निवेदकःव्यावर ) धीरजलाल के० तुरखिया अक्षय ततीया अधिष्ठाता चीर सं.२४८० घि. सं. २०१०) श्री जैन गुरुकुल शिक्षण संघ निबंध लेखक पृष्ट १ पं० शोमाचन्द्रजी भारिल्ल न्यायतीर्थ १ से २६ २ प्रबोधचन्द्रजी वेचरदासजी पंडित ३० से ७२ कन्हैयालालजी दक ७३ से ५८ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृषिकर्म और जैनधर्म [लेखक:-श्री पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल, न्यायतीर्थ.] कृषिकर्म, जैनधर्म से विरुद्ध है या अविरुद्ध, इस बात का विचार करने से पूर्व यह देखना उचित होगा कि धर्स क्या है ? और जीवन में धर्म का स्थान क्या है ? क्या धर्म कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए है या सर्वसाधारण के हित के लिए? ' इन प्रश्नों पर सरसरी निगाह डालने से कृषिकर्म का जैन। धर्म के साथ जो संवैध है, उसे समझना सरल हो जायगा। . धर्म जीवन का अमृत है-जीवन का संस्कार है। अतएव वह जीवमात्र के हित के लिए है। धर्म का प्रांगण इतना विशाल है कि उसमें किसी भी प्राणी के लिए स्थान की कमी नहीं है। यह बात दूसरी है कि कोई धर्म की छत्रछाया में न जावे और उससे अलग ही रहने में अपनी भलाई समझे; मगर धर्म किसी को अपनी शीतल छाया में आने से नहीं रोकता । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म की अमृतमयी गोद में बैठकर शांतिलाभ करने का अधिकार सव का समान है, चाहे कोई किसी भी जाति का, बर्ग का और वर्ण का हो और किसी भी प्रकार की ग्राजीविका करके जीवननिर्वाह करता हो। इतना ही नहीं, धर्म-साधना का जितना अधिकार मनुष्य को है. उतना ही पशु-पक्षी और कीट-पतङ्ग को भी है । अलवत्ता धर्मसाधना की मात्रा प्रत्येक प्राणी की अपनी-अपनी योग्यता पर निर्भर है। मध्यकाल में धर्म के संबंध में जो विविध भ्रांतिया उत्पन्न हो गई हैं, उन भ्रांतियों के कारण अनेकानेक सढ़ियाँ जन्मी हैं। ऐसी रूढ़ियाँ अब तक हमारे यहाँ प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं। इन रूढ़ियों और भ्रमणाओं के काले बादलों में, सूर्य की भाँति चमकता हुछा धर्म का असली स्वरूप छिप गया है। याज समाज का अधिकांश भाग धर्म की वास्तविकताले अनभिन्न है। धर्म संबंधी भ्रांतियों में एक बहुत बड़ी भ्रांति यह भी है है कि धर्म व्यक्तिगत उत्कर्ष का साधक है और सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ उसका कोई लेनटेन नहीं है। निस्सन्देह यह धारणा भ्रमपूर्ण ही है, क्योंकि व्यक्ति, समाजसमुद्र का एक विन्दुमात्र है। कोई भी व्यक्ति समाज से सर्वथा निरपेक्ष रहकर जीवित नहीं रह सकता। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पर सामाजिक स्थिति का गहरा प्रभाव पड़े विना नहीं रहता। इसके अतिरिक्त अगर धर्म का संबंध सिर्फ व्यक्तिगत जीवन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] के साथ ही होता तो धर्मप्रवर्तक श्रीमहावीर स्वामी स्वयं ही संघ की स्थापना क्यों करते ? सचाई यह है कि संघ या समाज के विना वैयक्तिक जीवन निभ नहीं सकता। अतएव धर्मशास्त्र में जहाँ श्रात्मधर्म (व्यक्तिगतधर्म) का निरूपण किया गया है, वहीं राष्ट्रधर्म, संघधर्म आदि की भी प्ररूपणा की गई है। आशय यह है कि धर्म का संबंध व्यक्ति और समाज दोनों के साथ है। अतएव किसी धार्मिक आचार का विचार करते समय हमें समाजतत्त्व को भूलना नहीं चाहिए । आत्मा अमूर्तिक है, अतीन्द्रिय है, यह सब सही है, लेकिन इससे भी अधिक प्रत्यक्ष सत्य यह है कि हमें आत्मा की उपलब्धि शरीर के साथ ही होती है। हम शरीर के बिना जीवित नहीं रह सकते । जो अशरीर है उन्हें धर्म की आवश्यकता नहीं है । जिनके लिए धर्म है वे सब सशरीर हैं। और शरीर ऐसी चीज़ नहीं है, जिसका स्वेच्छापूर्वक चाहे जब त्याग कर दिया जाय । शरीर धर्मसाधना का भी प्रधान अंग है। शरीर का निर्वाह करना हमारे जीवन की एक ऐसी मूलभूत आवश्यकता है. जिसकी उपेक्षा कोई महान् से महान् अात्मनिष्ठ मुनि भी नहीं कर सकता। , चाहे कोई कितना ही सयमशील क्यों न हो, शरीरनिर्वाह के लिए अन्न-वस्त्र की आवश्यकता उसे भी रहती है। वस्त्रों के अभाव में भी कदाचित् जीवित रहा जा सकता है, ५ ठाणांग सूत्र, ठाणा १० वां Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु अन्न के विना नहीं । 'अन्नं वै प्राणाः यह एक ठाम सत्य है। ऐसी स्थिति में अन्न उपार्जन करने के लिए किया जाने वाला कर्म-कृपिकर्म-क्या अधर्म है ? जिसके बिना प्राणों की स्थिति नहीं रह सकती, जिसके अभाव में जीवन निर्वाह असंभव है, जिस पर मनुष्य समाज का अस्तित्व अवलंबित है, उस कार्य को एकान्त अधर्म कहना कहाँ तक उचित है ? जो लोग संतोप के साथ अन्नोपार्जन करके जगत की रक्षा कर रहे हैं, उन्हें अधार्मिक या पापी कहना क्या अतिसाहस और विचारहीनता का दयोतक नहीं है ? पहले कहा जा चुका है कि धर्म, जीवन का अमृत है। किन्तु जो धर्म जीवन का विरोधी है, जीवन का विष है, जीवन निर्वाह का निषेध करता है, वह वास्तविक धर्म नहीं हो सकता। मगर धर्म वास्तव में इतना अनुदार नहीं है। कृपि जैसे उपयोगी कार्य करने वालों को वह अपनी छत्रछाया से वंचित नहीं करता। एसा करने वाला धर्म स्वयं खतरे में पड़ जाएगा। अन्न के अभाव में, धर्म का आचरण करने वाले धर्मात्मा जीवित नहीं रह सकते और धर्मात्माग्री के अभाव में धर्म टिक नहीं सकता। प्राचार्य समन्तभन्द्र ने यथाथ ही कहा है-न धर्मो धार्मिक विना । एक ओर हम जैनधर्म की विशालता, व्यापकता और उदारता की प्रशंसा करते-करते नहीं थकते और यह दावा रत्नकरण्डक श्रावकाचार । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं कि वह प्राणिमात्र का प्राण करने वाला और इसी लिए विश्वधर्म बनने के योग्य है । दूसरी ओर उसे इतने संकीर्ण रूप में चित्रित करते हैं कि विश्व को जीवन देने वाले कार्य करने वालों को भी धर्म की परछाई से अलग कर देना चाहते हैं । हमारे यह परस्पर विरोधी दावे चल नहीं सकते। जिन भगवान् ने प्राणी मात्र के लिए धर्म का उपदेश दिया है। अतएव जिन कार्यों से दूसरों का अनिष्ट नहीं होता, वरन् रक्षा होती है, ऐसे उपयोगी कार्य करने वाले धर्मबाहय नहीं कहला सकते,जव कि वे धर्म का पाराधन करने के इच्छुक हों। खेती और हिंसा बहुत से लोगों की यह धारणा है कि खेती का काम हिंसा जनक होने के कारण त्याज्य है। खेती में असंख्य त्रस जीवों का और स्थावर जीवों का घात होता है । अतएव स जीवों की हिंसा का त्यागी श्रावक खेती नहीं कर सकता। श्रावक को अपने जीवन निर्वाह के लिए अल्प-आरंभ वाली आजीविका करनी चाहिए, जिसले धर्म की साधना भी हो और जीवननिवीह भी हो। ऐसी विचारधारा से प्रेरित होकर लोगों का ध्यान प्रायः सट्टे की ओर जाता है। सट्टे में न आरंभ है, न हिंसा है। न कुछ करना पड़ता है, न धरना पड़ता है। न लेन, न देन, फिर भी लाखों का लेनदेन हो जाता है। लोग सोचते हैं-कहाँ तो छासीम हिंसा का कारण महारंभ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] मय खेती और कहॉ निरारंभ सट्टा ! इस विचारधारा के कारण है शायद बहुत से जैन गृहस्थ कृषिकार्य से विमुख होकर सट्टा करते हैं और उमी में संतोष मानते हैं । इसमें तो संदेह ही नहीं कि कृषि करने में त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा होती है, और अगर जनधर्म सिर्फ साधुओं का ही धर्म होता तो यह भी निःसंकोच कहा जा था कि कृषिकर्म, जिनधर्म से असंगत है। मगर ऐसी बात नहीं है। जैनधर्म जैसे साधुओं के लिए है वैसे ही श्रावकोंगृहस्थों के लिए भी है। धर्म की उपयोगिता नीचे के स्तर ( Standard ) के जीवों को ऊंचे स्तर पर ले जाने में है । जा धर्म गृहस्थों के भी काम न आ सके वह धर्म ही कैसा ? अविरत सम्यग्दृष्टि, जा जैनाचार का तनिक भी पालन नहीं करता, सिर्फ जनधर्म पर श्रद्धाभाव ही रखता है, वह भी 'जनधर्मी ही कहलाता है । इस प्रकार जब गृहस्थ भी जैनधर्म का अनुयायी है तो प्रश्न उपस्थित होता है कि उसकी हिंसा की मर्यादा क्या है ? कृषिकर्स उस मर्यादा में है या उससे बाहर है ? शास्त्रों में हिंसा के मुख्य दो मेद बतलाये गये हैं( १ ) संकल्पजा हिंसा और ( २ ) आरम्भजा हिंसा | मारने की भावना से जानवृककर जो हिंसा की जाती है वह संकल्पना हिंसा कहलाती है, जैसे शिकारी की हिंसा | Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन निर्वाह, भवननिर्माण, पशुपालन आदि कार्यो में जो हिंसा होती है, जिसमें प्राणियों को मारने का संकल्प नहीं होता, वह आरंभजा हिंसा कहलाती है। आरंभजा हिंसाभी दो प्रकार की है-निरर्थक और सार्थक । जो हिंसा विना किसी प्रयोजन-व्यर्थ की जाती है वह निरर्थक आरंभजा हिंसा है और जो प्रयोजनविशेष से की जाती है, वह सार्थक श्रारंभजा हिंसा है। साधारण श्रावक सिर्फ संकल्पजा हिंसा और निरर्थक आरंभजा हिंसा का त्यागी होता है। वह सार्थक आरम्भजा हिंला का त्यागी नहीं होता। अगर वह इस हिंसा का भी त्याग कर वैठे तो फिर वह गृहस्थी का कोई भी काम नहीं कर सकता। इस स्थिति में साधु और श्रावक के अहिंसाव्रत में कोई अन्तर ही नहीं रह जाएगा। __गृहस्थधर्म का प्रतिपादन करने वाले उपासकदशांग सूत्र में आनन्द श्रावक के व्रतग्रहण में यह पाठ पाया है-'थूलगं पाणाहवायं पञ्चक्खाइ-जावज्जीवाए दुविहं तिविहे न करेमि, न कारवेमि, मणला, वयसा, कायसा।' अर्थात् दो 'करण और तीन योग से अानन्द स्थूल हिंसा का त्याग करता है। स्थूल हिंसा किसे समझना चाहिए ? इस प्रश्न का स्पष्टी. करण श्रीहेमचन्द्राचार्य ने अपने योगशास्त्र में इस प्रकार किया है 'स्थूला-~मिथ्यादृष्टीनामपि हिसात्वेन प्रसिद्धा या हिसा सा स्पल Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [+] हिंपा। स्थलानां वा प्रसानां जीवानां हिंसा स्थलहिंसा । स्थलग्रहणमुपलक्षणं, नेन निरपराधसङ्कल्पपूर्वकहिंसानामपि ग्रहणम् ।' योगशास्त्र, दि. प्र. श्लोक ६८ (टीका) अर्थात् जिस हिंसा को मिथ्यादृष्टि भी हिंसा समझते हैं. वह स्थलहिंसा कहलाती है। अथवा स्थल जीवों की अर्थात् त्रसजीवों की हिंसा स्थूल हिंसा कहलाती है। यहाँ स्थल का ग्रहण उपलनणमात्र है, अतएव निरपराध जीव की संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा भी समझ लेनी चाहिए। इससे आगे प्राचार्य ने और भी स्पष्ट किया है पगुकृष्ठिकुणित्वादि, दृष्ट्वा हिसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां सहाल्पतस्त्यजेत ॥ अर्थात्-हिंसा करने वाले अगले जन्म में लँगड़े, कोढ़ी और कुबड़े ग्रादि होने हैं, हिंसा का यह अनिष्ट फल देखकर बुद्धिमान् श्रावक को निरपराध सजीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करना चाहिए । इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है किथावक के द्वारा होने वाली निम्नलिखित हिंसा से उसका अहिंसाणुव्रत खंडित नहीं होता (क) अपराधी त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा से । (ख) निरपराध त्रस जीवों की आरंभजा हिंसा से। (ग) स्थावर जीवों की हिंसाले। अव हमें यह देखना है कि प्रेती करने में जो हिंसा होती Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ & ] है, वह उक्त तीन तरह की हिंला में अन्तर्गत है या नहीं ? खेती में होने वाली हिंसा उक्त ख और ग विभाग के अन्त - र्गत है। खेती करने वाले का उद्देश्य हिंसा करना नहीं, वरन् खेती करना होता है । इसका प्रमाण यह है कि खेती करने वाले श्रावक को अगर एक हजार रुपये का प्रलोभन देकर कहा जाय कि - हजार रुपये ले लो और इस मकोड़े को मार डालो, तो वह ऐसा करने को तैयार न होगा । जो किसान श्रावक खेती करने में अनगिनती जीवों की हिंसा करके सौ-दौ सौ रुपयों का धान्य पाता है, वह हजार रुपये लेकर भी एक मकोड़े को मारने के लिए तैयार नहीं होता । इसका कारण यह है कि मकोड़े को मारना संकल्पी हिंसा है और खेती की हिंसा आरंभी हिंसा है । असंख्य जीवों की प्रारंभी हिंसा होने पर भी श्रावक का अहिंसाव्रत भंग नहीं होता, जब कि एक मकोड़े की संकल्पी हिंसा से भी व्रत का भंग हो जाता है | आरंभी हिंसा और संकल्पी हिंसा की तुलना करते हुए श्री श्राशाधरजी सागारधर्मामृत नामक श्रावकाचार में कहते हैं प्रारम्भेऽपि सदा हिसां सुधीः साङ्कल्पिकी व्यजेत् । नसोऽपि कर्पकादुच्चैः पापो ऽनन्नपि धीवरः । सागार० हि. घ. अर्थात् - समझदार श्रावक आरंभ करने में भी संकल्पी हिंसा का त्याग करे, क्योंकि संकल्पी हिंसा अतिशय पापमय ta - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] है। खेती करने के भाव से पृथ्वीकाय आदि की हिंसा करने वाले किसान की अपेक्षा, मछली आदि न मारने वाला किन्तु मारने का संकल्प करने वाला मच्छीमार अधिक पापी है। वास्तव में संकल्पी हिंसा में परिणाम अत्यन्त उग्र और दुष्ट होता है, प्रारंभी हिंसा में नहीं होता। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि खेती करने से श्रावक का अहिंसाणुव्रत खंडित नहीं होता। खेती और महारंभ दुसरा प्रश्न अल्पारंभ-महारंभ का है। कुछ लोगों की साधारण धारणा है कि खेती महारंभ का कार्य है, अतएव वह श्रावक के लिए हेय है। किन्तु हमें यह देखना है कि क्या खेती सचमुच महारंभ का कार्य है? आजकल जनता में अल्पारंभ-महारंभ के संबंध में अनेक भ्रम फैले हुए हैं । जैनधर्म के उभट विद्वान् स्वर्गीय प्राचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज ने इस विषय में बहुत विस्तृत और विचारपूर्ण व्याख्यान किया है। हम पाठकों से उनके इस संबंध के व्यास्थान पड़ जाने का आग्रह करते हैं। उन्होंने सन् १६२७ में कहा था 'मित्रो । एक प्रश्न मै तुम्हारे सामने रखता हूँ। बतायो खेती करने में ज्यादा पाप है या जुया खेलने में? ऊपर की छठि से जुड़ा (सहा) अल्प पाप गिना जाता है। इसमें किसी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] की हिंसा नहीं होती। केवल इधर की थैली उधर उठाकर रखनी पड़ती है। पर खेती में ? एक हल चलाने में न जाने कितने जीवों की हिंसा होती है ? यह कहना भी अत्युक्ति नहीं कि खेती में छहों कायों की हिंसा होती है। मित्रो ! उथले विचार से ऐसा मालुम होता है सही, पर अगर गहराई में जाकर विचार करेंगे तो आपको कुछ और ही प्रतीत होगा। श्राप इस बात पर ध्यान दीजिए कि जगत् का कल्याण किसमें है ? पाप का सूल क्या है? क्या संदेह करने की बात है कि खेती के विना जगत् सुखी नहीं रह सकता ? खेती से प्राणियों की रक्षा होती है। थोड़ी देर के लिए, कल्पना कीजिए कि संसार के सब किसान कृपिकार्य छोड़कर जुआरी बन जाएँ तो कैसी वीते ? ___ जिस कार्य से जगत् के प्राणियों की रक्षा होती है। पालन होता है, वह कार्य शुभ है या पाप का? वह कार्य एकांत पाप का नहीं हो सकता। अब आप जुए की तरफ़ देखिए । जुश्रा जगत्कल्याण में तनिक भी सहायक नही है। बल्कि जुत्रा खेलने वालों में झूठ, कपट, छलछिन्द्र, तृष्णा आदि अनेक दुर्गण पैदा हो जाते हैं। अधिक क्या कहें, संसार में जितने भी दुर्गुण हैं, वे सब जुए में विद्यमान हैं। जुआ और खेती के पाप की तुलना करते समय आप यह न भूल जाइए कि शास्त्रों में जुए को सात कुव्यसनों में गिना Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ । गया है, पर खेती करना कुव्यसनों के अन्तर्गत नहीं है। श्रावक को सात कुव्यसनों का त्याग करना आवश्यक है। अगर जुए की अपेक्षा खेती में अधिक पाप होता तो कुव्यसनों की अपेक्षा खेती का पहले त्याग करना आवश्यक होता । परन्तु शास्त्र कहते हैं-अानन्द जैसे धुरंधर श्रावक ने श्रावकधर्म धारण करने के पश्चात् भी खेती करने का त्याग नहीं किया था। जो लोग यह समझते हैं कि हमें विना विगेप आरंभ किये, बाजार से ही धान्य मिल सकता है तो धान्योपार्जन करने के लिए आरंभ-समारंभ क्यों किया जाय ? भले ही खेती में महारंभ न हो, किन्तु जिस प्रारंभ से बचना संभव है. उससे क्यों न बचना चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए प्राचार्य सोमदेव सूरि की यह सूक्ति ध्यान देने योग्य हैक्रीतेप्वाहारेप्विव पण्यस्त्रीपु क यास्वादः ? -नीतिवाक्यामृत, वासिमुदेश । आचार्य ने यहाँ खरीदे हुए आहार और वेश्या की तुलना की है। यह तुलना बड़ी बोधप्रद है और धार्मिक भी है। विवाह करने में अनेक प्रारंभ-समारंभ करने पड़ते हैं, सैकड़ों तरह की झंझटों में पड़ना पड़ता है, बाल-बच्चों की परम्परा चलती है और उस परम्परा से पाप की परम्परा बढ़ती चलती है। स्त्री और बालबच्चों के भरण-पोषण के Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] लिए न जाने कितना प्रारंभ करना पड़ता है। इस महारंभ से वचने के लिए वेश्यागमन करके ही कामवासना तृप्त क्यों न कर ली जाय ? थोड़े से पैसे खर्च किये और अनेकानेक पापों से बचे। कहाँ तो पापों की परम्पग और कहाँ वेश्या का अल्प पाप ! इस प्रकार ऊपरी दृष्टि से वेश्यागमन में अल्प पाप और विवाह करने में महापाप भले ही प्रतीत होता हो, लेकिन कोई भी विवेकशील पुरुष इस व्यवस्था का समर्थन नहीं कर सकता। धर्मशास्त्रों से तो इसका समर्थन हो ही नहीं सकता। तात्पर्य यह है कि अल्पारम्भ और महारंभ की मीमांसा वाह्य दृष्टि से और तात्कालिक कार्य से नहीं की जानी चाहिए। संसार की व्यवस्था और समाजकल्याण की दृष्टि भी इसमें गर्मित है। इसके अतिरिक्त, थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाय कि बाजार से धान्य लाकर खाना ही धर्मसंगत है और धान्य उपार्जन करना अधर्म है, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि बाजार में धान्य आएगा कहाँ से? अगर सभी मनुष्य इस धर्म को अगीकार कर ले और खेती करना छोड़ दें तो जगत् की क्या स्थिति होगी? क्या धर्म के प्रचार का फल प्रलय होना चाहिए? जिस धर्म को अगीकार करने से जगत् में हाय-हाय मच जाए, मनुष्य भूखेतड़फ़-तफ़ कर प्राण दे दें, वह धर्म क्या विश्वधर्म वनने के योग्य है? अथवा वे Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ? ] लोग, जो अपने धर्म का पालन करने के लिए दूसरों को चलात् अधर्म में प्रवृत्त करेंगे, क्या धर्मात्मा कहे जा सकेंगे ? धर्म का उद्देश्य केवल पारलौकिक शांति, सुख नहीं है । हलौकिक शांति, सुख और सुव्यवस्था भी धर्म का लक्ष्य है । परलोक, इस लोक पर अवलंबित है और इस लोक की सुख-शांति कृषिकर्म पर बहुत कुछ अवलंबित है । श्राचार्य सोमदेव सरि कहते हैं 'तस्य खलु संसारसुखं यस्य कृषिधेनवः शाकचाट' सद्मन्युदपानं च || टीका-तस्य गृहस्थस्य खलु निश्वयेन सुखं भवति यस्य किं ? यस्य गृहे सदैव कृषिकर्म क्रियते तथा धेनवो महिष्यो भवन्ति 1 -- नीतिवाक्यामृत, पृ. ६३ ! अर्थात् उस गृहस्थ को निश्चय ही सुख की प्राप्ति होती है, जिसके घर में सदैव खेती की जाती है, तथा गायें और भैंस होती है । - आचार्य सोमदेवजी यद्यपि स्पष्ट रूप से खेती और पशुपालन करने का विधान नहीं करते, ऐसा करना साधु के आचार के विरुद्ध है, तथापि उनका श्राशय एकदम स्पष्ट है। वे परोक्षरूप से कृषि और पशुपालन का गृहस्थ के लिए समर्थन करते हैं । ऐसी दशा में यह कैसे कहा जा सकता है कि खेती करना श्रावकधर्म से विरुद्ध है । अतपत्र प्रारंभ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] सभारंभ की दृष्टि से कृषि का श्रावक के लिए निषेध करना उचित नहीं है। कृषि-कार्य में प्रारंभ नहीं है, यह कहना यहाँ अभीष्ट नहीं है। कृषि में ही क्यों, प्रारंभ तो छोटे से छोटे कार्य में भी होता है। यहाँ तक कि घर आये हुए को आसन देने में भी आरंभ होता ही है। कहने का आशय यह है कि कृषि का आरंभ त्यागना श्रावकधर्म की मर्यादा में नहीं है। श्रावक की योग्यतानुसार उसके प्राचार की अनेक कोटियाँ हैं। उसका आचार अनेक प्रकार का होता है। कोई श्रावक साधारण त्यागी होता है, कोई प्रतिमाधारी होता है। जैनशास्त्रों में बतलाया गया है कि प्रत्येक प्रतिमाधारी श्रावक भी कृपि के आरंभ का त्यागी नहीं होता। प्रतिमाओं का सेवन क्रमपूर्वक ही होता है और प्रारंभत्यागप्रतिमा (पडिमा) में श्रावक खेती का त्याग करता है। दिगम्बर संप्रदाय के सुप्रसिद्ध प्राचार्य श्रीसमन्तभद्र कहते हैं सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्याऽसावारम्भविनिवृत्तः ।। -~~ रत्नकरण्डक श्रावकाचार, अ, ३ । ' अर्थात् सेवा, कृषि और व्यापार आदि प्रारंभ से, जो हिंसा के हेतु हैं, जो श्रावक निवृत्त होता है वह प्रारंभत्याग प्रतिमा का पालक कहलाता है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] . श्वेताम्वर सम्प्रदाय के प्राचार्य श्री सिद्धसेन ने भी प्रवचनसारोद्धार की टीका में लिखा है एषा पुनर्नवमी-प्यारम्भवर्जनप्रतिमा भवति, यस्यां नव मासान् यावत्पुत्रभ्रातृप्रभृतिपु न्यस्तसमस्तकुटुम्बादिकार्यभारतया धनधान्यादिपरिग्रहेप्वल्पाभिवङ्गतया च कर्मकरादिभिरपि प्रास्तां स्वयं, श्रारम्भान सपापव्यापारान् महतः कृप्यादीनिति भावः । -प्रवचनसारोद्धार । ग्राशय यह है कि प्रतिमाधारी श्रावक प्रारंभत्याग नामक आठवी प्रतिमा में स्वयं प्रारंभ करने का त्याग कर देता है। तत्पश्चात् प्रेष्यारंभ त्याग नामक नौवीं प्रतिमा धारण करता है। इस प्रतिमा में वह नौकरो-चाकरों से भी खेती का काम नहीं करता, क्योंकि वह अपने भाई या पुत्र प्रादि पर कुटुम्ब का भार छोड़ देता है और परिग्रह में उसकी आसक्ति कम होती है। यह प्रतिमा नौ मास की होती है। आरंभ के अनेक काम है, फिर भी यह बात ध्यान देने योग्य है कि स्वामी समन्तभद्र और श्री सिद्धसेन सूरि-दोनों ने ही, बल्कि सागारधर्मामृत आदि अन्य ग्रन्थों के कर्ताओं ने भी, प्रारंभत्याग प्रतिमा का स्वरूप बतलाते हुए कृपि का उल्लेख किया है। समन्तभद्राचार्य सेवा और वाणिज्य के साथ कृषि का उल्लेख करते हैं। और सिद्धलेत सूरि सिर्फ कृषि का * निरूढसप्तनिष्टोऽझिवाताहत्वाकरोति न । न कारयति कृप्यादीनारम्भवित्तस्त्रिधा ।। -सागारधर्ममृत, Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] उल्लेख करके उसमें 'पादि' पद जोड़ देते हैं । आशाधरजी भी कृषि का उल्लेख अवश्य करते हैं और उसमें 'आदि' पद सिद्धसेनजी की भांति ही लगा देते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि शायद उस समय भी कुछ लोगों को खेती के विषय में भ्रम होगा और उस भ्रम का निवारण करने के लिए प्राचार्यों ने अपने-अपने समय में आरंभत्याग प्रतिमा का स्वरूप बतलाते समय कृषि का खास तौर से उल्लेख किया होगा यह बतलाने के लिए कि कृषि का त्याग आठवी प्रतिमा में होता है। कुछ भी हो, यह स्पष्ट है कि इस विपय में दिगम्बर-- श्वतास्वर सम्प्रदायों के प्राचार्य एकमत हैं कि कृषि का त्याग साधारण श्रावक के लिए जरूरी नहीं है। दिगम्वर सम्प्रदाय के आठवी प्रतिमाधारी श्रावक प्रायः गृहवास का त्याग कर देते हैं और श्वताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार अाजकल प्रतिमाओं का धारण ही नहीं हो सकता । इससे यह स्पष्ट है कि गृहस्थ श्रावको ले खेती का त्याग करने के लिए कहना और खेती करने से श्रावकधर्म की मर्यादा का भंग मानना भ्रमपूर्ण है। __ यह अत्यन्त खेद की बात है कि हमारे कत्तिपय धर्मगुरु भी प्रायः इस भ्रम में पड़े हुए हैं। इसका परिणाम यह होता है कि गृहस्थों को गृहस्थधर्म की बातें नहीं बतलाई जाती और __ साधुधर्म का आचार उन पर लादा जाता है। गृहस्थ, श्रावक के कर्तव्यों का भली-भाँति पालन नहीं करते और साधुधर्म Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] का पालन ना कर ही केले सकते हैं ? इस प्रकार वे न इधर के रहते हैं, न उधर के। वे अनेक अवांछनीय प्रवृत्तियों में पड़ जाते हैं. इसका एक प्रधान कारण यही प्राचारविभ्रम है। कृषि कर्मादान नहीं है खती के संबंध में एक बात और विचारणीय है। वह यह है कि क्या खेती करना एन्द्रह कमीदानों में से फोडीकम्मे (स्फोटिकर्म ) के अन्तर्गत है? कुछ लोगों की धारणा है कि हल के द्वारा ज़मीन को फोड़ना फोडीव.म्मे' नामक कर्मादान है। कर्मादान,भोगापभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं.अतः बनधारी श्रावक अगर निरतिचार व्रतों का पालन करना चाहे, तो उसे कृपिकर्म नहीं करना चाहिए । वास्तव में यह विचार भी अभ्रान्त नहीं है। अगर खेती करना कर्मदान में सम्मिलित होता तो भगवान महावीर स्वामी के समक्ष बारह व्रत ग्रहण करने वाला प्रानन्द श्रावक पाँच सौ हलों से जाती जा सकने योग्य खेती की मर्यादा कैसे कर सकता था? क्या भगवान् उसे यह न समझाते कि व्रती श्रावक खेती नहीं कर सकता ! मगर अानन्द बारह व्रत ग्रहण करता है, फिर भी पाँच सी हलों से जुतने योग्य खेती करने की छुट रखता है। इस बात का उपासकदशांग - सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है । मूल पाठ यह है: Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] 'तयाणंतरं च णं खेत्तवन्थुविहिपरिमाणं करेइ- नन्नत्य पंचहि हलसऐहि नियत्तणसइएणं हलेणं अवसेसं खेत्तवत्थुविहिं पञ्चक्खामि । --उपासकदशांग, १ला अध्ययन । अर्थात्-तत्पश्चात् आनन्द श्रावक क्षेत्रवास्तुविधि का परिमाण करता है--सौ निवत्तन (एक तरह का ज़मीन का नाप) जोतने वाले एक हल के हिसाब से पाँच सौ हलों द्वारा जुतने योग्य भूमि के अतिरिक्त बाकी की भूमि का प्रत्याख्यान करता हूँ। __ इस प्रकार अन्यान्य व्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् ही आनन्द प्रतिज्ञा करता है__ 'समणोवासएणं पण्णरसकम्मादाणा जाणियव्वाइ, न समायरियच्चाइ, तं जहा-इंगालकम्भे, वणकम्मे, साडिकम्मे, भाडिकम्मे, फोडिफम्मे' . . . . .. अर्थात-श्रावक को पन्द्रह कीदान जानने योग्य हैं, पर आचरण करने योग्य नहीं हैं, वह इस प्रकार हैं-अगारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटककर्म,स्फोटिकर्म आदि-श्रादि । उपासकदशांग सूत्र के यह दोनों उल्लेख साफ वतलाते हैं कि खेती करना स्फोटिकर्म कसीदान नहीं है, क्योंकि अानन्द श्रावक कर्मादान का त्याग करता हुआ भी खेती का त्याग नहीं करता। खेती करना अगर कर्मादान में गिना जाय तो यह प्रतिज्ञाएँ परस्पर विरोधी हो जाती हैं । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि व्रत ग्रहण कराने वाले स्वयं भगवान हैं और ग्रहण करने वाला आदर्श श्रावक श्रानन्द है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २० ] शास्त्र में आनन्द श्रावक का चरित मनोरंजन के लिए, नानी की कहानी की तरह नहीं लिखा गया है। यह एक यादर्श चरित है, जो इस भावना से लिखा गया है कि आगे के श्रावक उसे अपना पथप्रदर्शक समझे और उसका अनुकरण करें। लेकिन हम लोगों के बारह वनों की बात ही दूर, मूल गुणों तक का ठिकाना नहीं है और चले है हम प्रानन्द से भी आगे बढ़ने ! अानन्द पाँच सौ हल चलाने की छूट रखना है और हम एक हल चलाने में ही महापाप मानकर उम्मका त्याग करने की धृष्टता करते है ! श्राचार का यह व्यतिक्रम, विकास का नहीं. अधःपतन का ही कारण हो सकता है। पन्द्रह कसीदानों में एक साड़ीकम्म अर्थात शकट कर्म भी है। शकटकर्म का अर्थ है-~-गाड़ी वनने, बेचने और चलाने की आजीविका करना। अगर इस कर्मादान का फोड़ीकम्मे की भॉति समान्य अर्थ लिया जाय तो श्रावक बैलगाड़ी. घोडागाड़ी, तांगा, सोटर आदि कोई गाड़ी भी नहीं रख सकेगा, क्योंकि शकट चलाना कमादान है और व्रती श्रावक को कमादान का त्याग करना ही चाहिए। औरों की बात जान दीजिए और सिर्फ पहले कर्मादान 'अंगारकर्म' को ही लीजिए। श्रावक अपने उदरनिर्वाह के लिए अग्नि जालाता है, कोयले जलाता है, तो क्या उसे कर्मादान का महापाप लगता है ? अगर भोजन बनाने के लिए Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] अगार जलाने से ही कर्मादान का महापातक लग जाता है और श्रावक का व्रत दूषित हो जाता है तो फिर कर्मादानों का त्याग करने के लिए आजीवन संथारा लेने के सिवाय और क्या चारा है ? इस प्रकार श्रावक के व्रत ग्रहण करना अर्थात शीघ्र ही सौत को आमंत्रण देना ही ठहरता है। धर्म की यह कितनी ऊलजलूल व्याख्या है ! लेकिन कर्मादानों का वास्तविक स्वरूप यह नहीं है। श्रावक अपने लिए गाड़ी वनाए, खरीदे और स्वयं चलावे तो भी 'लाडीकम्ने कर्मादान नहीं लगता । कर्मादान का पाप उस हालत में लगता है जब कि गाड़ी बनाने का धंधा ही अख्तियार कर लिया जाय और उसी धंधे से आजीविका चलाई जाय । इसी प्रकार अपने भोजन आदि उपयोग के लिए 'अंगार जलाने का काम करने ले 'अगारकर्म' कर्मादान नहीं लगता । कोयला वना-बना कर बेचने का व्यापार करने से कर्मादान लगता है। यही वात कृपि के संबंध में है । खेती करना 'फोडीकम्ने कर्मादान नहीं है, वरन् हल चला-चला .कर खेत को सुपाक के लायक बना कर अजीविका करना-- हल चलाने का ही धंधा करना, और हल चलाकर उपार्जित किये हुए धन से निर्वाह करना काटान है। ___फोडीकम्मे' कर्मादान में तालाव खोदना, कुआ-चावड़ी खोदना आदि कार्य भी गिने जाते हैं। परन्तु हमारा सहज ज्ञान क्या यह स्वीकार करने के लिए तैयार है कि परोपकार Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] के लिए या अपने उपयोग के लिए कुठया प्रादि खोदने-खुदवाने से महान् पाप-इतना बड़ा पाप जिससे श्रावक का बत खडित हो जाय, लगता है ? कदापि नहीं । वास्तव में अपने पेट के लिए भूमि फोड़ने का धंधा करना ही कर्मादान है. कृषि करना कर्मादान में सम्मिलित नहीं है। जिस कार्य को करने से महान् पाप का बंध होता है. वह कार्य कर्मादान कहलाना है। इस अवसापिणी काल के तीसरे बारे में जब कल्पवृक्ष नष्ट हो गये और कर्मभूमि का प्रारम्भ हुआ तव तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव ने उस समय की अज्ञान जनता को कृषिकर्म करने का उपदेश दिया था। श्रीसमन्तभद्राचार्य ने श्रादिनाथ की स्तुति करते हुए कहा है शशास कृप्यादिपु कर्मसु प्रजाः। --वृहत्स्वयंभूस्तोत्र । अगर कृषिकर्म पार्योचित कर्म न होता, महान् पाप का कारण होता तो भगवान उसका उपदेश क्यों देते? भगवान् ने उस समय की प्रजा को जुश्रा या सट्टा न सिखलाकर खेती की शिक्षा क्यों दी है ? तात्पर्य यह है कि कृपिकर्म न कमीदान है, न अनार्य कर्म है। जगह-जगह उसे वैश्यों का. कर्तव्य बतलाया गया है। श्रीसोमदेव सृरि लिखते हैंकृपिः पशुपालनं वणिज्या च वार्ता वैश्यानाम् । -नीतिवाक्यामृत । उत्तराध्ययन सूत्र में, 'वडा कम्मुणा होइ' इस सूत्रांश की टीका इस प्रकार की गई है-'कर्मणा-कृषिपशुपालनादिना Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] भवति ।' अर्थात् कृषि और पशु-पालन आदि कार्यो से वैश्य होता है । कृषिकर्म वैश्यों का प्रधान कर्त्तव्य है, इस सम्बन्ध में अधिक उद्धरणों की आवश्यकता नहीं है । यही बात दूसरे शब्दों में इस प्रकार कही जा सकती है कि जो वैश्य कृपि, पशुपालन और वाणिज्य रूप वैश्योचित कर्म नहीं करता वह अपने वर्ण से च्युत होता है । वर्णव्यवस्था की दृष्टि से उसे वैश्य नहीं कहा जा सकता । कृषिकर्म के सम्बन्ध में मुख्य-मुख्य बातों का यहाँ तक विचार किया गया है । इससे यह भलीभाँति सिद्ध है कि कृषिकर्म, श्रावकधर्म को बाधा नहीं पहुँचाता | हॉ जो श्रावक गृहवास का त्याग करके, प्रतिमा धारण करके, विशिष्ट साधना में अपना समय व्यतीत करने के लिए उद्यत होते हैं, वे जैसे अन्यान्य आरंभों का त्याग करते हैं, उसी जो श्रावक व्रतरहित प्रकार कृषि का भी त्याग कर देते हैं । हैं या व्रत सहित होने पर भी आरंभत्याग प्रतिमा की कोटि तक नहीं पहुँचे हैं, उनके लिए कृषिकर्म त्याज्य नहीं है । कृषि और अन्य आजीविकाएँ अगर आजीविकाओं पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाय तो यह प्रतीत हुए बिना नहीं रहेगा कि व्याजखोरी आदि अन्य आजीविकाओं की अपेक्षा कृपि श्राजीविका • < Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्रावकधर्म के अधिक अनुकूल है। सट्टे के साथ, जो एक प्रकार का जुया ही है, कृषि की तुलना की जा चुकी है । जुया को धर्मशास्त्रों से त्याज्य ठहराया है। मृदखोरी का धन्धा भी प्रशस्त नहीं है। शास्त्रों में वर्णिन कोई अादर्श श्रावक यह धन्धा नहीं करता था। प्राचार्य सोमदेव सरि ने लिखा है पशुधान्यहिरण्यसम्पदा राजते.शोभते, इति राष्ट्रम् । अधीत-जो देश पशु, धान्य और हिरगय से सुशोभित हाता है. वही सच्चा राष्ट्र कहलाता है। यहाँ पशुओं और घान्य को प्रथम स्थान दिया गया है और उसके बाद हिरण्य (चांदी-लोने) को। सा करके प्राचार्य ने यह मूचित कर दिया है कि किसी भी देश की प्रधान सम्पत्ति पशु और धान्य है, क्योंकि उनसे जीवन की आवश्यकताएँ सानात् रूप से पूर्ण होती है। जेवस्तु जीवन की वास्तविक अावश्यकताओं की साक्षात् पूर्ति करती है, उसका उपार्जन करने वाला सामाजिक एवं राष्ट्रीय दृष्टि से समाज एवं राष्ट्र का उपकार करता है। वह जगत् को अपनी ओर से कुछ प्रदान करता है, अतएव वह जगत् का वोझ नहीं है वरन् माझ उठाने वालों का हिस्सेदार है। वह समाज से कुछ लेता है तो उसके वदले समाज को कुछ देता भी है। अनाज पैदा करने वाला किसान दूसरों का भार नहीं है, बल्कि दूसरों का भार संभालता है। वह अनेक मनुप्यों को अन्न के रूप में जीवन दे रहा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] है, क्योंकि पैदा किया हुआ सारा अनाज वह स्वयं नहीं खा लेता । यही वात पशु-पालन के संबंध में भी कही जा सकती है। मगर सूद का धंधा करने वाला पुरुष स्वार्थसाधन के सिवा और क्या करता है ? ऐड़ी से चोटी तक पसीना वहा कर किसान जो अन्न उपजाता है, उस पर सूदखोर का जीवन निर्भर है, फिर भी वह किसान को भरपेट नहीं खाने देता। समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों के परिश्रम पर वह गुलछरें उड़ाता है, मगर उनमें से किसी की मूलभूत आवश्यक-- ताओं की पूर्ति के लिए वह कुछ भी आत्मदान नहीं करता। वह अगर कुछ करता है तो सिर्फ समाज में विषमता का विष ही फैलाता है। अतएव उसका कार्य जगत् के लिए कल्याणकारी न होकर अकल्याणकारी ही है। व्यापार अगर सामाजिक भावना का विरोध न करते हुए, चल्कि समाजकल्याण की दृष्टि को साथ लेकर किया जाय तो वह भी उपयोगी और श्रावकर्स से अविरुद्ध है, मगर ऐसा होता नहीं है। व्यापारीवर्ग व्यक्तिगत लाभ के लिए ही व्यापार करता है। यह बात इस युद्ध के समय में अत्यन्त स्पष्ट हो गई है । लोग भूखे सरे पर व्यापारियों का हृदय नहीं पसीजा। उन्होंने मुनाफे के लोभ में जनता के जीवन-मरण की चिन्ता नहीं की । कम-बढ़ रूप में सदा ही यह होता रहता है। लेकिन खेती में यह संभावना नहीं है। किसान अत्यधिक अनाज का, लम्बे समय तक संग्रह नहीं कर सकता। व्यापार की अपेक्षा खेती की महत्ता इसलिए भी अधिक Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] " है कि खेती मूल प्राजीविका है। मूल आजीविका वह कह - लाती है, जिस पर अन्य अनेक आजीविकाएँ निर्भर हो । कपास. रुई, सूत, जूट, बुनाई, सिलाई, कपड़े के मिल, बजाजी का व्यवसाय, इस संबंध के तमाम आढ़त आदि के धंधे, तथा समस्त अनाज संबंधी व्यवसाय, हलवाई की दुकानें, होटल ढावा आदि-आदि कृषिकर्स पर अवलंबित हैं। अगर किसान खेती करना छोड़ दे तो दुनिया के अधिकांश व्यापारी चौपट हो जाएँ। इस दृष्टि से व्यापार का मूल भी खेती ही ठहरता है । ऐसी स्थिति में विभिन्न आजीविकाओं के साथ तुलना करने पर कृषि की उत्कृटता सिद्ध होती है । निःसंदेह कृषि जीवन है और कृषक जीवनदाता है। लोग राजा महाराजाश्र को दाता कहते हैं, मगर ईमानदारी से तो किसान ही अन्नदाता है । प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय । जनधर्म संबंधी श्राचारविषयक विभ्रम उत्पन्न होने के कारण पर एक निगाह डालना शायद श्रप्रासंगिक न होगा । मेरे विचार से याचारविषयक विभ्रम का प्रधान कारण यह है कि हम जैनधर्म को एकान्त निवृत्तिमय मान वैठे हैं । धर्मोपदेशक भी प्रायः इसी रूप में धर्म का स्वरूप प्रकट करते हैं । लेकिन एकान्त निवृत्ति क्या कहीं संभव है ? निवृत्ति, प्रवृत्ति के विना और प्रवृत्ति, निवृत्ति के विना असंभव है। अक्सर लोग समझते हैं, हिंसा निवृत्ति रूप है, लेकिन वास्तव में Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] हिंसा में जो निवृत्ति है, वह अहिंसा का शरीर है और उसमें पाया जाने वाला प्रवृत्ति का भाव उसकी आत्मा है। किसी प्राणी को नहीं सताना श्रहिंसा का बाह्य रूप है और इस निवृत्ति के साथ सर्वप्राणियों में बन्धुभाव होना, विश्वप्रेम का अंकुर उगना, करुणाभाव से हृदय द्रवित होना, जगत् के सुख के लिए कर्त्तव्यपरायण होना श्रादि प्रवृत्ति श्रहिंसा का आन्तरिक रूप है । इसके विना अहिंसा की भावना न उद्भूत हो सकती है, न जीवित रह सकती है । जैसे पक्षी एक पंख से आकाश में विचरण नहीं कर सकता, उसी प्रकार एकान्त निवृत्ति या एकान्त प्रवृत्ति से आत्मा ऊर्ध्वगामी नहीं हो सकता । अतएव यह कहा जा सकता है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति, जैनाचार के दो पंख हैं । इन में से किसी भी एक के प्रभाव में अधःपतन ही संभव है । इसलिए शास्त्रों में कहा है: 1 सुहादो विवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितम् । अर्थात् - अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को ही चरित्र समझना चाहिए ! प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय ही चरित्र का निर्माण करता है । जब हमें जीवनयापन करना ही है तो एकान्त निवृत्ति से काम नहीं चल सकता । प्रवृत्ति कुछ करनी ही होगी । ऐसी स्थिति में किस कार्य में प्रवृत्ति करनी चाहिए और किससे निवृत्त होना चाहिए, यह प्रश्न अपने आप उत्पन्न हो जाता Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ == ] है । इसका आंशिक समाधान ऊपर उद्घृत वाक्य से हो जाता है कि शुभ में प्रवृत्ति और अशुभ से निवृत्ति करनी चाहिए । लेकिन शुभ क्या है ? और अशुभ क्या है ? यह प्रश्न फिर भी बना रहता है। शुभ और अशुभ की व्याख्या कुछ-कुछ देश - काल की परिस्थिति पर निर्भर करती है, लेकिन उनकी सर्वदेश - कालव्यापी व्याख्या यही हो सकती है कि जिस कार्य से श्रात्मा का और जगत् का कल्याण हो वह शुभ है और जिससे व्यक्ति और समष्टि का कल्याण हो वह अशुभ है । इमी दृष्टि से हमें जीवननिर्वाह के लिए कोई भी शुभ कार्य पसंद करना चाहिए। पहले जो विवेचन किया गया है उनसे यह स्पष्ट है कि कृषिकर्स जीवन के लिए अत्युपयोगी है-व्यक्ति और समाज का जीवन उसी पर अवलंबित है। उससे किसी को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचती । श्रतएव जीवननिर्वाह का जहाँ तक प्रश्न है. कृषि विधेय कर्म है । सट्टे आदि की निवृत्ति से कृपि श्रादि शुभ कार्यो मे प्रवृत्ति ही फलित होती है । उत्तराध्यन सूत्र में बतलाया गया है कि धर्मात्मा पुरुष स्वर्ग में उत्पन्न होने के पश्चात् जव मनुष्ययोनि धारण करता है, तब उसे दस श्रेष्ठ वस्तुओंों की प्राप्ति होती है । यथा खेत्तं वत्थु हिरणं च, पसवो दास-पोरुसं । चारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जइ ॥ -laun -उत्तरा ३ रा श्रध्याय । · यहाँ क्षेत्र (खेत ) की प्राप्ति को प्रथम स्थान दिया गया Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९ ] " है । वास्तव में पुण्य के उदय से खेत मिलता है और खेत जोतने वाला जगत् की रक्षा करके पुराय का भागी होता है । हमारा खयाल है, पाठक इतने विवेचन से भलीभाँति समभा सकेंगे कि जीवननिर्वाह के कार्यों में कृषि का स्थान क्या है और वह धर्म से संगत है या विसंगत है ? 10 100 Synthosam 1777 ZARGUMENTA Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृषिकर्म भने जैनधर्म -::::()::::~-~~~ जीवन अपने धर्मनो सम्बन्ध कोई विचारके उच्छेद्यो नथी. आदर्श जीवन जीवधुं अटले धर्मने चरणमा मुकवो. निश्रेयसनी प्राप्ति माटे या जीवन मल्युं छे अने अनी द्वारा धर्म शाचरीने मुक्ति साधी शकावानी है. जीवनना केक गमां पवित्रता रहेवी जाइए. धर्म से मात्र जङ्गलमां जइने श्राचरवानी चीज नर्थी परन्तु समाजसेवा माटे - जनकल्याण माटे -छे. धर्मनो अर्थ केवल वाह्य क्रियाकांडनो नथी, परन्तु व्यापक छे. बाह्य अने आभ्यन्तर बन्ने प्रकारनी शुद्धि होयत्यारे ज धर्म श्राचरी शकाय. मनुस्मृति ग्रने ग्रा. हेमचन्द्रना योगशाखनी, धर्मनी व्याख्या जुनो विद्वद्भिः सेवितः सद्भिर्नित्यमद्वे परागिंभिः । हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्म स्तं निबोधत ॥ - मनुस्मृति, य २ श्लो. १, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ ] दुर्गतिप्रपत्प्राणिशरणाद्धर्म उच्यते । संयमादिर्दश विधः सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये ।। -~-योगशास्त्र, प्र. २ लो ११. प्रजानुं धारणपोपण थई शके अने जनसमूहने उत्पथे जतां अटकावे ते धर्म. संयमथी धर्म आचरणमां मुकाय. अने श्रे धर्म आचरे ते माणसज जीवनमुक्त दशामा रही शके. संसारमा थतां कर्मो अने बन्धनकर्ता थई पडता नथी. भारनीय संस्कृतिना उत्थानकालथी ते अाज सुधी दार्शनिको धर्म अने जीवननो सनातन सम्बन्ध प्रस्थापित को ज छे. जीवनशुद्धि अभारतीय विचारनुं तत्त्व छे. वुद्ध अने महावीरनां उदाहरण ल्यो-बन्ने रे 'प्रायणात् सर्वकामानां परित्यागो विशिप्यते' कथन अनुसार संसारसुखोनो त्याग करीने संमारना जीवाने श्रोछामा ओछो क्लेश थाय अर्बु जीवन गाल्यु. अकनो सिद्धांत कहेतोहता के संसारचक्र मूल वासना छे, बीजानो सिद्धांत कहेतो हतो के कर्म अ जीवने वन्धनकर्ता छे, वन्ने मात्र सिद्धांत निरूपण करीने बेसी न रह्या. वासना अने कर्मनो नाश करवा माटे अथाग परिश्रम लीधो-जीवनसमर्पण कर्यु. जीवनना श्रेक-अक अगमा रागद्वेषनो नाश करवा प्रयत्न कर्यो. राजा पण श्रादर्शधर्म प्राचरी शके छे. प्रेम प्रकना अनुयायी अशोके सिद्ध कर्यु, ज्यारे गृहस्थ पण आदर्श धर्म आचरी शके छे अम Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] वीजाना अनुयायी आनन्दे सिद्ध कयु. ___ मध्यकालीन संतो अने विचारकोना उदाहरण ल्यो, कबीर, तुकाराम. नरसया, आ गृहस्थीग्रो साधुओथी पण उच्चतर जीवन गालता हता.सत्य अने प्रेम प्रेमने जीवनना महामंत्र हतां. वणकर के भिनु वन्ने अक सरखी रीते धर्म आचरी शके छे अनी प्रतीति अपना जीवन उपरथी थई शके छे. सत्य अने प्राणीमात्र प्रत्ये प्रेम अ भावना ज्यां होय रे जीवन धर्ममय थवानुं ज. पछी अ आचरनार भिनु होय के गृहस्थ होय के राजा होय. जीवनना के अङ्ग साथे धर्मने विरोध नथी. अत्यारना संतनो दाखलो ल्यो-महात्मा गांधीजीअ स्पष्ट दर्शाव्यु छे के राजकारण से कुटिल चाललाजी नथी परन्तु अमा पण सत्य अने अहिंसाने स्थान छे. जीवननुं जे अंग धर्मथी विमुख थतुं जाय छ ते अते माणसने विनाश तरफ टोरी जाय छे. अनेा दाखलो के पापणी अाधुनिक राजनीति, आपणी आधुनिक संस्कृति प्रगतिनी भावनाछेल्ला, सैकाथी अवी मान्यता प्रवर्ती रही छे के धर्म या कोई कपोकल्पित वस्तु छे अज्ञान अने प्रमाण लोको ज अने माने छ, नीतिना बंधन जेवी कई चीज़ छे ज वहि, राजकारणमा तो जे वीजाने छेतरी सके तेज कुशल आपणे आज अवी संस्कृतिनी कल्पना करी रह्या छीने के जेमा माणसने सहाय इन्द्रियसुख मले अने आज मान्यताओ अाज समस्त विश्वने विनाशना पंथे घसडी रही छे. शांतिपर्व-महाभारत मां, ययाति राजा सुखभोगवीने निराश थइ कहे छे Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम् । सृष्णाक्षयसुखस्यैते, नाहतः पीडशी कलाम् ॥ मानवजीवनना मुख्य पुरुषार्थ लो-धर्म, अर्थ अने काम, पुरुषार्थ विना जेम था लोकमां सिद्धि थती नथी, तेमज पुरुपार्थ विना मोक्ष मली शकतो नथी. परन्तु अ पण ध्यानमां राखवानुं छे के अकला अर्थनी पाछलज प्रयत्न करनार माणस के अकला कामनी पाछल प्रयत्न करनार माणस विपथे पड़े छे. अर्थ अने काम जो धर्मथी संकलित होय तोज विषय कषाय रहित जीवन गाली शकाय छे. सोमप्रभ सूरि कहे छे त्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण, पशोरिवायुविफलं नरस्य । तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति, न तं विना यद् भवतोऽर्थकामौ ।। -सिन्दूरप्रकर धर्म अने कर्म वञ्चे मूलगत विरोधनथी. कर्म पाचरनार जो धर्ममय होय तो कर्म आचरवामां विरोध नथी. अ कर्म राग, द्वेष मोहथी न थq जोइए पण लोकसंग्रहाथै थQ जोइए. गीतानो स्थितप्रज्ञ के जैन साधु रे राग मोह इत्यादिथी रंगाला न होय. अने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह ने अनुसरतो होय तो लोकसंग्रहार्थ करेला कर्म वन्धनकर्ता नथी थतां. जे माणसने जे कर्म अनुरूप होय ते तेणे कर्येज छुटको. अने तेमांज तेनं अने जनसमाजनुं कल्याण समाअखें छे. जो धर्म जशे, तो मानवसंस्कृतिनो पायो खल__ भली उठशे. अने पशुजीवन अने मनुष्यजीवनमां कई मेद नहीं Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] रहे, व्यास मुनि भारत सावित्रिमा वधाने उद्देशी ने कहे छे के न जातु कामान्न भयान्न लोभात , धर्म त्यजेत जीवितस्यापि हेतोः । धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्य: हेतुरस्य स्खनित्यः ।। अने इन्द्रियनिग्रह करीने कर्म आचरचु जोइये. विदुरनीति कहे छे त्रिविधं नरकस्येद द्वार....... ... .............। कामः क्रोधश्च लोभश्च, तस्मादेतत् वयं त्यजेत ।। अने शास्त्रोनो उद्देश पण श्रेज छे. धर्ममय जीवन केम गालव, निःश्रेयसने मार्ग प्रावतां विघ्नोमांथी केम बचq, अने जनसमाजनुं हित केम चधार अज शास्त्रोना उद्देश छे. अाधुनिक समयमां जे शास्त्रो प्रत्यारना समाजमे हितकर्ताप्रत्यारना समाजने मार्ग सूचक थई पडशे तेज जीवी शकशे. जीवनथी विरुद्ध धर्म उपदेशतां शास्त्रो, शास्त्रो रहेोज नहिं. हमेश वदलातां विचारोमा सनातन सत्यनो पडघो, दरेक क्षणे बदलाता मानवजीवननी समक्ष नित्य रहे तो धार्मिक विचार अज शास्त्रोपदेश छे. श्रापणे अमांशी घरां मेलववार्नु छे, अने घणुंज आचरवानुं छे. श्रीअरविन्द घोप गीता विशे लखतां कहे थे-जे वधाज शास्त्रोना अभ्यासने लागु पड़ी शके "But what we can do with profit is to seek in the Gita for the actual living truks it contains, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५] apart from 11. Their one taphysical from to extract from it what can help us or the world at large and to put it in the most natural and rital from and expression we can find that will be suitable to the mentality and helpful to the spiritual needs of our present-day humanity ...... ... And that is after all what Scriptures were written to give, the rest is academical disputation or theological dogma Only those Scriptures, relived philosophies which can be thus constantly renewed, relived their stuff of permanent truth constantly reshaped and developed in the inner thought and spiritual experience of a developing humanity, continue to be of living importance to mankınd. (Essays on Gita I) अने आपणे आपणा शास्त्रोने अ नवी दृष्टिथी जोवानां छे. अत्यारना समाजनी जरूरियातो, अत्यारनी सामाजिक परिस्थितिने अनुलक्षी पारणे आपणा कर्मोनो विचार करवानो छे. आपणी सामे हमेशा प्रापणा शास्त्रोनो श्रादर्श रहेशे अने शोधक अने साधकनी नवी दृष्टिथी आपणे आपणा जीवननो अभिप्रेत मार्ग शोधवानो छे. धर्ममय जीवन माटे पापणी अत्यारनी प्रवृत्ति अने धर्मनो Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] संबन्ध जाणवो श्रावश्यक के अध्ययन, व्यापार, कृषि इत्यादि जीवननां अगत्यनां कमी साथै धर्मनो संबन्ध जाणवो ग्रेज अत्यारना शोधक प्रागल मोटी समस्या है. धर्मना सिद्धांतो पुस्तकमा रहेवा सर्जायां नथी पण आचारमां मुकवा सर्जाया छे. लच्यमां राखीने श्रापणे धार्मिक जीवननी शरुयात करवानी छे. जीवननां विविध क्षेत्रोने धर्म साथै शु संवन्ध छे अवधानी चर्चानो अत्र श्रवकाश नधी - मात्र कृपि श्रने जैनधर्म - कृषि ने ने जैनधर्म ने शो संबन्ध छे तेनी परीक्षा करवानी छे. जैनधर्म ने खेतीने शो संबन्ध छे ते जाणवां माटे जैनधर्मना उद्गमनी परिस्थितिनी दूंकी आलोचना आवश्यक छे. वैतिहासिक प्रमाणो नजर समक्ष राखीये तो जैनधर्मना मूल उंडा मालूम पड़े छे. ई. स. पूर्व ७५० अ अनी तिहासिक मर्यादा. विचारोनी क्रांतिना कालमां जैनधर्मनो उदय थयेलो. लोकोने शंका थवा लागी के श्री यज्ञजाल, प्रा पशुवधाने चर्चा शु कदीय मोक्षप्राप्तिनुं साधन थशे खरी ? श्री शंका धीरे धीरे मूर्त स्वरूप पकडती गई श्रने ना जवाब रूपे जे विचारको उभा थया ते जैन विचारको हता. २३ मां तीर्थकर पर्श्वनाथ ई० स० पू० ७५० - तिहासिक व्यक्ति तरीके सिद्ध थया है (जेनुं मान H. jacobi ने घटे छे) पण नो अर्थ ओम नथी के इ० स० पू० ७५० मां जैनधर्म का अस्तित्त्वमां आवी गयो. कोई पण विचारनी शाखा ने धर्मनी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] मान्यता अकाओक धर्म रूपे प्रगट नथी थती. सैकाओ सुधी लोकमानसना विचारो जुदां जुदां स्वरूप पकड़े छे, अने धीरे धीरे अक वखत अवो आने छ के ज्यारे अविचारो संकलित अने संबद्ध थईने एक स्थाई विचारशाखा अने धर्म रूपे नियत थाय छे. अटले जैनधर्मना मूल तो इ० स० पू० ७५० थी पण उंडा होवा जोइये. यशो जेम जेम बाह्य आचारने अगत्य प्रापवा लाग्या, अने प्रांतरिक शुद्धि जेम जेम नाबूद थती गई तेम श्रेक लोकमत अवो उभो थयो होवो जोइये के बाह्य कर्मकांड निःश्रेयस् तरफ नथी लई जतो. यशोमां सेंकडो बलदो, बकरी, गायोनो वध कोईनी नीति भावनाने जरुर स्पो हशे, अने त्यांज जैनधर्मनां मूल छे-हिंसाना प्रखर विरोध रूपे श्रे स्थपायो हशे. यशनी अने यज्ञ बहारनी अनेकविध हिंसा सामे लोको जरूर विचार करता थई गया हशे. श्राम जैनधर्म लोकमतना श्रेक प्रवाह तरिके उभो थयो हतो; अने हिंदु जीवन तथा शास्त्रो ऊपर तेनी ऊडी असर पडी होवी जोइये श्राने माटे Dr. F. otto schrader. ना अंक लेखमांथी नीचेन विस्तत अवतरण आवश्यक छे. "अहिंसानो आवो उत्कट मार्ग अनुक्रम वगर अकदम उत्पन्न थाय भाग्येज मानी शकाय तेवं छे; तेथी तेमज महावीर अने पार्श्वनाथ पण आमांना घणा नियमो ऊपर भारमूकताहता तेथी; पापणे रेवी श्रेक कल्पना तरफ दोराईए छीए के बुद्धनी पूर्व चे शतक के तेथी पण पहेलां (अटले Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] क्राइस्ट नी पूर्व ८०० वर्ष पहेलां ) हाल जेने अहिंसातुं अणुव्रत कहेवामां आवे छे तेना जेवा अक मंतव्यनी प्रथम स्थापना जैनो अथवा कोई अन्य धर्मानुयायीओ तरफथी करवामां प्रावी हशे. या कल्पनाथी आपणे वैदिक युगनी समाप्ति सुधी पाछल जई) छी-अने अहिं छान्दोग्य उपनिपना अंतिम भागमा अापणे इच्छेलु अहिंसा व्रत- प्रथम पगश्रीयु आपणने मली आवे छे-जो के देखीती रीते ते मूलनी शरूआतनुं तो नथी ज. छान्दोग्य उपनिषद्नो ते भाग नीचे प्रमाणे छे-"प्राचार्यना धेर यथाविहित समयमां, यथाविधि, वेदनो अभ्यास करी ने जे गुरुना घेरथी पाहो आवे छे, तेणे पोतानी मेले पोताने घरे पवित्र स्थानमा ते पवित्र ग्रंथनो अभ्यास करवो; सत्यशील विद्यार्थीग्रोने भणाववा; पोतानी सकल शक्लियोनुं स्थान ते पात्माने वनाववो, पवित्र तीर्थो सिवाय अन्यत्र कोई पण प्राणानी हिंसा क.रवी नहि ते खरेखर पा प्रमाणे यावज्जीवन रही ब्रह्म लोक मेलवे छे, अने पुनः श्रावतो नथी; पुनः आवतो नथी.” ओनो अर्थ केजे मोक्षनी आकांक्षा राखे छे ते यज्ञ सिवाय अन्य पशुवध करी शके नहिं. अहिं ध्यानमा राख, जोइए के अहिं गृहस्थने उद्देशीने या अहिंसाना नियममुं वर्णन थाय छे. "परन्तु त्यार पछीना उपनिपदोमां चतुर्थाश्रम पूर्ण विकास पामेलो जोवामां आवे छे. अने तेने माटे श्रापेला नीयमो जैन यतिना नियमो ने केटलेक अगे मलता आवे छे. जैनयतिनी Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] जेम ब्राह्मण संन्यासी ने पण वर्षा ऋतुमां फरवानु बंध राखq पड़े छे, अने पाणी पीधा पहेलां गालवं पड़े छे, अने स्पष्टपणेज-जो के चौकस नथी छतां-ते मांसाहार करी शेकतो नहिं. गमे तेम हो पण अारलु तो चौकस छे के ब्राह्मण धर्ममां पण घणा लांबा समय पछी या सूक्ष्म अहिंसा विहित थई, अने आखरे वनस्पति आहारना रूपमा ब्राह्मण जातिमां पण ते दाखल थई हती. कारण अछे के जैनोना धर्मतत्वोने जे लोकमत जीत्यो हतो तेनी असर सजड रीते वधती जती हती ...... ... . अने आखरे दक्षिण हिन्दुस्तानमां ई. स. नातेरमा सैकामां उत्पन्न थयेला माधव संप्रदायना केटलाक प्रतिनिधिओश्रे अन्तिम पगल लीधु. तेमणे गसे ते प्रकारनी प्राणी हिंसा ने पापवाली गणी ने धिक्कारी अने यज्ञमां प्राणी वलिदान ने स्थाने कहेवातो-पिष्ट-पशु, अटले अन्ननी बनावेली प्राणीनी प्राकृति वापरवानो रिवाज दाखल कर्यो." ' जनधर्म प्राचीन धर्म छे, अने अनु उत्थान' हिंसाना अने व्यर्थ कर्मकांडना विरोधमा थयु हतुं अ हवे स्पष्ट छे. जीवनना प्रत्येक क्षेत्रमा अहिंसान आचरण श्रे जैनधर्मनो हिन्दुसंस्कृतिमा फालो ___ जैनष्टिो अहिंसा अटले मानसिक तेमज कायिक, अहिंसा. मानसिक अहिंसाना फलरूपे जैन नत्वज्ञानमांस्याद्वादनो प्रवेश थयो. दरेक वस्तुने जुदी जुदी रीते जोवानी टेव पाडवी अने परमतनो अकदम विरोध न करचो-वे छे Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] स्याद्वाद. दरेक वस्तुने जुदी जुदी बाजुओ होय छे. जेने अंग्रेजीमां Religious Tolerance कहेवाय. ते श्रास्याद्वादमां प्ररुपित थयेल है. अहिंसानुं अगत्यनुं अंग तो Tolerance ज छे. जुदा जुदा विचारको लडे ने परस्पर खंडनों करे तेना करतां स्याद्वादनी दृष्टिथी जुश्रे तो केटलाय मतभेदोनो सहेलाई थी नीकाल श्रावी जाय. अक दृष्टिथी जोईये सो अक चीज़ क प्रकारनी लागे. अने बीजी दृष्टिथी जोईये तो भेज चीज़ अन्य प्रकारनी लागे. अना सात भङ्ग - स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्ति नास्ति, स्यादवक्तव्यम्, स्यादस्ति वक्तव्यम्, स्यान्नास्ति वक्तव्यम्, स्यादस्तिनास्ति वक्तव्यम् - विचारनी सहिष्णुता बतावे छे. वस्तुत्व अनेकान्तात्मक छे अने जुदी जुदी दृष्टिथी जोईने वस्तुतत्वनो निर्णय थई शके. स्याद्वाद अज्ञेयवाद के नास्तिकवादनी मान्यता नथी. कै० वा० डा० भ्रव कहे छे "It (स्याद्वाद ) is this a doctrine of Relativity Truth of fluid as opposed to rigid truth, and should be confounded with any form of Scepticism or agnosticism, ancient or modern " अने C. E. M. Joad लखे छे "Philosophy consists, in fact, of continyal poding and sifting of conception, of philosophers. The more diverse the conception, the richter the material to be sifted None is to be rejected, because Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१] while none is true, none is wholly false हवे जैन ग्रन्थोसां घतावेलु हिंसा स्वरूप जोईए. जैनधर्म मुख्यत्वे तपप्रधान आचारधर्म छे. इन्द्रियनिग्रह अने कषायो ऊपरनो विजय से तो सूर छे. अटले आचारमां खास कठिनता होय से स्वाभाविक छे. अहिंसाने आचार'मां कवानो मुख्य प्रयत्न करनार जैनो, ग्रेटले आचारमां अमणे हिंसानो मुख्य उपदेश कर्योज होय श्रहिंसानुं श्राचरण करनारे जीव ने अजीव चीजोनी आलोचना पण करवीज पड़े अटले जीवाजीव विचारनी संमजरा पण जैन दर्शन मां सारी जग्या रोके छे. 73 जैन श्रमणने पांच महाव्रत तेथानां होय छे, तेमां प्राणातिपातविरमण प्रथम आवे छे, ग्रेटले के श्रहिंसाने प्रथम स्थान मले छे. आचारांग सूत्र कहे छे के: > १ से बेमिः - जेय अईया जे य पडुप्पन्ना जे य श्रागमिस्सा अरहन्ता भगवन्तो, सव्वे ते एवमाक्खन्ति एवं पन्नवेति एवं परूवेतिः - सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हन्तव्या न श्रज्जावेयव्वा न परिघेत्तव्वा न परियावेयव्वा न उदयव्वा । आचारांग० अ-१-४-१ | तुमं सि नाम त चैव जं 'हन्तव्वं' ति मन्नपि । तुमं सि नाम तं चैव जं 'ज्जावेयध्वं ' ति मन्नसि,' Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'परिभावेयचं' उहवेयत्वं' . [ ४२ ] परिघेतन्त्र' .......श्रज्जू चेयपढिबुद्धजीवी' तम्हा न हन्ता नवि घायए । श्राचारांग --१-१-४ | श्रने श्रा श्रहिंसानो श्राचार साधु पालवानो छे. स्थूल अने सूक्ष्म वने प्रकारनी श्रहिंसा श्राचरवानी श्रादर्श स्थिति श्रहिं वर्णवेली छे. छ जातनां जीवों वर्णन दशवैकालिक सूत्रना चौथा उद्देशकमां करेलुं छे. अने प्राणातिपात विरमण व्रत श्रमणने लेवानुं होय छे पढमे भन्ते महत्वए पारणाइवायाओ वेरमणं । सव्वं भन्ते पाणाइवायं पञ्चवक्खामि, से सुहुमं वा वायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणे अइवापजा, नेवन्नेहिं पाणे अहवायावज्जा, पाणे अहवायंते पि श्रन्ने न समणुजाणामि जावज्जीवाप तिविंह तिविहेणं मणेण वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि करेन्तं म अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भन्ते पडिक्कमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । पढमे भन्ते महत्वप उवडियोमि सव्वा पाणाइवायाओ वेरमण । था छे श्रमणनी आदर्श श्रहिंसानुं व्रत. श्रा अहिंसानुं स्वरूप श्राचरणमां मूकवानुं कठण लागे, परन्तु श्रादर्श हिंसा तरिके तो श्रा व्रतज होई शके. हवे खेती अहिंसामां श्रावे के केम ? ग्रे मुख्य प्रश्न उपस्थित थाय छे. प्रेम कहेवासां आवे छे के खेती करती Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३ ] वखते धरती फोड़वी पड़े अने केटलाक जीवोनो विनाश थाय तो पछी अहिंसा व्रतधारीने खेती करवी इष्ट के नहिं ? तेनी शास्त्रीय आलोचना माटे हुँनीचेना मुद्दा रजु करीश. जैनधर्ममां सूक्ष्ममां सूक्ष्म जीवनी प्राणहानि न थाय अ विशे खूब विवेचन करवामां श्राव्यु छे अटले स्वाभाविक रीतेज, जेमा असंख्य जीवो हणाय छे-अवी खेतीने हिंसक प्रवृत्ति तो गणवामां आवेज. मात्र जैन विचारको नहि, परन्तु ब्राह्मण विचारको पण खेती हिंसक प्रवृत्ति होवाथी ब्राह्मणो माटे त्याज्य गणी हती-मनु लखे छ वैश्यवृस्यापि जीवस्तु, ब्राह्मणः क्षत्रियोऽपि वा। हिंसाप्रायां पराधीनां, कृषि यत्नेन वर्जयेत् ।। ८३ श्र.१० कृषि साध्विति मन्यन्ते, सा चत्तिः सद्विहिता। भूमि भूमिशयांश्चैव, हन्ति काप्ठमयोमुखम् ।। ८४ अ.१० अटले मनुस्मृति ने पण कहेवं पडे छे के अयोमुख काष्ठहल-भूमि ऊपर अने अन्दर रहेला जीवोनो नाश करे छे माटे कृषि त्यजवी. प्राथी अम मालूम पडे छे के खेतीमा सम्पूर्ण अहिंसा सचवाती न होवाथी मात्र जैन विचारकोज नहिं परन्तु ब्राह्मण विचारकोशे पण नो विरोध को हते. हवे खेतीमाथती हिंसा बाधक छेके केम तेनी विशेष चर्चा माटे तत्त्वार्थसूत्रनी हिंसानी व्याख्या ल्यो प्रमत्तगेगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा । अ. ६, सू । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 28 ] प्रमत्त योगधी थतो प्राण वध ते हिंसा. ज्यारे रागद्वेषवाली सावधान प्रवृत्तिश्री प्राणवध करवामां आवे त्यारे ते हिंसा गणाय. प्रमत्त योग ग्रने प्राबध ये कारणो जरा चर्चा मागी ले छे जैतो हिंसा - श्रहिंसानो विचार स्थूलदृष्टिभेज कर्यो नथी. हिंसाना विचारको छेक उंडाण सुधी पहोंची गया श्रने हिंसार्नु वीज स्थूल कार्यमां नहिं पण माणसमां रहेली प्रशुभ घासनाओमां जोयुं. ज्यारे प्रमत्तयोग जनित प्राविध थाय त्यारे ज हिंसा - जे सर्वथा वर्त्य - थाय. हिंसा करनारना मनमां जेनी हिंसा करवी होय तेने हणवानी, तेना तरफ राग, द्वेपनी भावना होय, अने ने वश थई ने जो ग्रे प्राणवध आचरे तो जरूर में हिंसा थई गणाय ने हिंसा वर्ज्य थे. आाथी थेक प्रश्न सहेजे उठे छे के अनिवार्य थती प्राणहानि ने हिंसा कहेवी के नहिं ? प्रलवत्त अनिवार्य होवा - थी थे अहिंसा सम्पूर्ण रीते हिंसा मटती नथी, परन्तु हिंसा वाधक नथी. वीजी वाजु जोइये - एक माणसे वीजा ऊपर हमला कर्यो - रागद्वेपना वश थई ने तेनुं खून करवाना ईरादा थी ( जेने कायदानी भाषामां मेन्सरीया - Mensrea कहे छे ) पण तेनुं खून न थई शक्युं छतां मे प्राणवध नी कोटिनी हिंसाज थई. कारण के श्रे प्रमत्तजनित हती. प्रमत्तयोग वगरनी हिंसाने द्रव्य हिंसा कहेवामां आवे छे, अनेोना छे के तेनुं दोपपशुं प्रवाधित नधी. येथी उलहुँ, प्रमत्तयोग जनित हिंसाने भावहिंसा कहेवामां आवे छे, जेनुं दोप • Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] nij स्वाधीन होवाथी त्रये कालमां वाधित रहे छे,” (तत्वा र्थसूत्र - पंडित सुखलाल जी ) श्रप्रमादी माणस सम्पूर्ण सावधान पणे विचरतो होय, हालतां, चालतां बोलतां जे जीव मरे छे, ते हिंसा छे परन्तु वाधित नथी ज, छाने अथी उल्टुं प्रमादी माणस जे प्रवृत्ति आचरे छे तेमां प्रमत्तयोग थाय ज अहिंसा बाधक छे ज. खरी हिंसा तो संकल्पथी करेली हिंसा छे. जैनधर्ममां ग्रेनां घण उदाहरणो पण छे, खाटकी कालसौकरिक नो प्रख्यात दाखलो ल्यो- अणे खरेखर जीवतां पाडाने कुत्रामां हराया न हतां, छतां, ग्रेनी दुष्ट भावना एज अना कर्मने हिंसक स्वरूप आपवा बस हती. बीजु उदाहरण -- मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । क्षणेन नरक याति, जीवस्तण्डुलमत्स्यवत् ॥ , · क मोटु मत्स्य हतुं, ने अनी अांखनी कीकीमां अक वीजुं नानुं मत्स्य हतुं, पेला मोटा मत्स्यना सदाय खुल्ला रहेता मुखमा केटलाय जीवो धावता श्रने चाल्या जता, परन्तु मत्स्य जीवोने खातुं नहिं, पेलुं नानुं मत्स्य विचार करतुं के जो हुं मोटुं मत्स्य होस तो बधा जीवोने खाई जात, श्रा दुष्ट संकल्प करवाथी ज ग्रे नरके गयुं. - टले संकल्प करीने जे हिंसा श्राचरवामां आवी, होय, ते हिंसा दूपित छे, जे माणूस सावधानीथी वर्ततो होय वैठवा उठवामां ईर्यासमितिनुं सम्पूर्ण पालन करतो होय छताय जो. , Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६] जीवहानि न रोकी शके तो श्रे हिंसा अने जरा पण बाधक थई पड़ती नथी. प्रा. हेमचन्द्र योगशास्त्रमा जणावे छ के___ एवं विरोपयोग वतश्च गच्छतो मुनेः कथंचित् प्राणीवधे ऽपि प्राणवघपापं न भवति । यदाह उच्चालियम्मि पाए इरियासमियस्स सङ्कमट्टाए । पावज्जेज कुलिङ्गी मरिज तं जोगमासज ।। न य तस्स तनिमित्तो वधो सुहुमो वि देसिश्रो समए । श्रणवनो उपयोगे सवभावेण सो जम्हा ।। तथा जितदु व मरद व जीवो अजदाचाररस निच्छश्रो हिंसा । पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामित्त ण समिदस्स || प्र-१ श्लो.३६ । पाथी स्पष्ट मालूम पड़े है के हिंसा करवानी भावना श्रेज हिंसा छे. शुद्ध भावनाथी सावधान रही ने आचरेला कर्ममां कोई जीवहानि थाय ते जरा पण वाधित नथी. हवे खेती तरफ जोईये. खेडूत ज्यारे खेती करवा माटे सवारे हल जोडे हे त्यारे ना मनमां शी भावना होय हे? अना मनमांशुवी भावना होय छे के आजे हल जोडीने जमीनमा रहेला सेंकडेा जीवोनो संहार करूँ? वा अवी भावना होय छे के हुँ श्राजे या हलथी जमीन खेड़ीने अनाज पकवु ? जो जीव हणवानी इच्छा होय तो जरूर खेती वयं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७ ] हिंसानी कोटिमां ावी जाय छे. पण जो श्रेनी इच्छा-भावना अनाज पकवानी हाय जे प्रजाना धारण पोषण माटे होई अनिवार्य छ- तो खेतीमां थती हिंसा बाधक नथीज. जेम बालवामां, बोलवामां, श्वास लेवामां, हिंसा थाय छे अने तेने आपणे रोकी शकता नथी, तेमज खेती अनिवार्य होवाथी अने शपणे रोकी शकीज नहिं. ऊपर जणावेली हिंसानी व्याख्याथी अटलं तो जरूर -फलित थाय छे के खेती से वर्ण्य अवी मोटी हिंसा नथी. __ खेतीनो विरोध जैन अने ब्राह्मण विचारको कर्यो, पण ते तो आदर्श अहिंसा ने माटे छे. जे माणसे संसार त्याग्यो होय, अन्न अने पाणी पण खूबज परिमित लेतो होय, अने जेने माटे जीवन श्रेअक समस्त त्यागज वनी गयु होय ओने माटे खेती वर्ण्य होई शके, जनसमुदाय माटे नहि. खती आदर्श अहिंसक माटे निविद्ध छ, परन्तु गृहस्थनी मर्यादनी वहार नथी. जैनधर्मश्राचारप्रधान छे; अने प्राचारनी वे मुख्य कोटि पाडी नाखी छे-श्रमणनो आचार ,अने श्रावकनो आचार. श्रमणनो श्राचार खूब कडक होय छे, खूब संयम जालववानो होय छे-जेम ब्राह्मणधर्ममां चार वर्णो पैकी ब्राह्मणने खूब संयम जालववानो होय छे-जेटलो श्रादर्श होय श्रे वधो कई श्रावकथी आचरी शफातो नथी, वल्के खूबज ओछो आचरी शफाय छे. श्रमण, श्रावकथी वधारे अहिंसा पाली शके, कारण के ग्रेनो त्याग मोटे छ; Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४ ] श्रने जेम त्याग वधारे तेम अहिंसाचरण वधारे. माटे श्रमणनी मर्यादामां खेती वर्ण्य होई शके, परन्तु गृहस्थ माटे-श्रावक 'माटे-खती निषिद्ध नथी ज. अनां वीजां प्रमाण तपासतां पहेला श्रे जाई लईए के साधुनी अहिंसा अने गृहस्थनी अहिसानी मर्यादामा केटलो फर्क हाई शके ? भानु विवरण 'श्री सम्यक्त्व मूलवारव्रतनीटीप' मां छे, तेनुं अवतरण नीचे यापुंछु "साधुने वीश विश्वानी दया के अने गृहस्थ ने सवाविश्वानी दया छे. ते केवी रीते छे तेनो विवरो लखीरे छी. जगतमा जीवना वे भेद कह्या छे. अक थावर वीजा बस, ''तेमां थावरना वली सूक्ष्म, वादर श्रेचे भेद छे, तेमां पण "सूक्ष्मनी हिंसा नथी, कारण अति सूक्ष्म जीवना शरीरने वाद्य शस्त्रनो धाव लागतो नथी, तेमने स्वकाय अटले पोतानी जातीना जीवोथी घात छे. पण बादर नथी-ओमाटे अहींया सूक्ष्म शब्द थी पण जाणवू के थावर जीव पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, वनस्पतिरूप बादर अपांचे थावर तेमने सूक्ष्म कहीरे अने थूल अटले बैंद्रि. ३द्रि, चौरेंद्रि पंचेन्द्रि रूप जाणवा ओ जीवमा मूल भेद वे छे. तेमां सर्व जीव श्राव्या, तेश्रो सर्वनी त्रिकरण शुद्ध साधु रक्षा करे छे. ते माटे वीश विश्वानी दया मुनिने छे. पण श्रावकधी नो पांच थावरनी दया पाली शकाय नाहि. सचित्त आहारादि कारगाश्री अवश्य हिंसा थाय छे. माटे दश Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [ ४६] विश्वा गया अने दश रह्या. अटले अंक त्रस जीवनी दया राखवाना दश विश्वा रह्या तेना पण वली वे भेद छे. अक संकल्प अने बीजो प्रारंभ. तेमां प्रारंभ करीने जे त्रस जीवनी हिंसा थई जाय ते छोड़ी न जाय ते माटे बे विसामां अक संकल्प हिंसानो त्याग अने श्रारंभ हिंसानी तो जयणा छे, प्रेम गणता फरी दशमांथी अडधा गया अटले पांच विश्वा रह्या, अटले संकल्प करी त्रस जीव न हणु. अमां पण जीवना बे भेद छे. श्रेक सापराधी जीव अने वीजा निरपराधी जीव के. तेमां जे निरपराधी जीव छ तेमने न हणुअने सापराध जीव ने हणवानी तो जयणा छे. अथी करी सापराधीनी दया श्रावकथी सदा सर्व रीते पले नहीं ........................... श्रे माटे अपराधी नो संकल्प पण न छूटे. त्यारे बाकी रहेला पांच विश्वामांथी पण अडधा गया, बाकी अढी विश्वा रह्या, श्रेटले संकल्पीने “निरपराधी जीवने न मारु" अटलुज फकत रहयुं अमां पण वली बे मेद छे. अक सापेक्ष अने बीजा निरपेक्ष. तेमां सापेक्ष निरपराधी जीवनी दयाश्रावकथी पले नहीं, तेनं कारण शुं ते कहे छे. श्रावक पोते घोडा, गाडी, बलद, रथमां, गाडीमां के इत्यादि वीजाऊँट वाहनोपर बेसे छे. त्यारे घोडा प्रमुख बलद वगैरे ने चावका के पार लगावे छे. पण विचारतो नथी के चलदे शो अपराध कर्यो छे ओमनी पीठ उपर तो चढी बेठो छे. अ जीवना शरीर सामर्थ्यनी तो कई खबर छे नहीं, जे आ जीव वलवान छे के दुर्वल छे. पोते उपर वली चढी वेठो छ. ने तेने गाल प्रमुख दइ ने मारे छे ! Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५० ] पण थे तो निरपराधी ज छे. वली आपणा श्रगमां तथा श्रापणा पुत्र पुत्री, नानी गोत्री श्रादिकना मस्तकमां श्रथवा कानमां कीड़ा पड्या छे. अथवा आपणा जमोदामां के दांतमां के दाढमां के जडवामां कीडा पड्या छे, ते वारे तेमने मारवाना उपाये करीने कीडानी जग्या श्रोषध लगाडवुं पडे, पण से जीवो शो अपराध कर्यो छे ? ये तो पोतानी योनिउत्पत्तिस्थान पामीने कर्मने ग्राधीन श्रावीने श्रहीया ऊपजे छे- तो ये अपराधी नथी. ते कारण माटे निरपराधी जीवनी पण हिंसा, कारणे करीने श्रावकथी तजी जाय नहीं से मारे थढी विश्वा मांथी अधो गयो त्यारे सवा वशानी . दया रही. ग्रेटली सवा वशानी दया शुद्ध श्रावकने छे. अटले 'सजीव संकल्पने निरपराधने कारण विना हणु नहीं' ग्रेवी प्रतिज्ञा थई ये प्रतिज्ञा ज्यारे शुद्ध रहे त्यारे ते श्रावक व्रती कहवाय. ( श्री सम्यक्त्व मूल वार व्रतनी टीप २४-२६ ) शुद्ध श्रावकने पण मात्र सभा वश्यानी दया छे अ ऊपरथी साधु अने गृहस्थता नियमनमां केटलो फेर छे ते मालून पडी शके छे. खेती साधुने निषिद्ध होई शके परण गृहस्थनी मर्यादानी अंदर खेती यात्री जाय छे, अने तेनां प्रमाणो हवे तपासवानां रहे के. श्रावकोनां जीवन वर्णवतुं उपासकदशासूत्र तपासी उपलकदशामां आवतां कथानको वधां श्रेक चे श्रपवादवाद 1 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता-समान के श्रावकोनी रहेणी कया प्रकारनी हती ते अमनो जीवनमाथी स्पष्ट थई शके छे. बधा श्रावको कृषि प्रधान बेपारीयो हता. अमना वर्णन ऊपरथी अ हकीकत स्पष्ट थाय छे जुओ आनन्द श्रावकनु वर्णन__ नस्स शं श्राणन्दस्स गाहावइस्स.चत्तारि हिरण्णकोडीश्रो निहाणपउत्तानो चत्तारि हिरण्णकोडीश्रो बुढिपउत्तानो, चत्तारि हिरएणकोहोरो पवित्थरपउत्तानो चत्तारि चया दस गोसाहस्सिएवं वएणं होत्या। श्रावु वर्णन तो अनुज होई शके के जेने घेर मोटो वेपार अने खेती चालतां होय. बधाने घेर खेती हती जुश्री आनन्द श्रावकनुं अध्ययन. श्रानन्द श्रावक इच्छाविधिपरिमाण करे छे त्यारे तयाणंतरं च णं खेतवत्थुविहिपरिमाणं करेइ । नन्नत्थ पन्चहि हलसएहिं नियक्तण-सइएणं हलेणं, श्रवसेसं सव्वं खेत्तवत्थुविहि पञ्चक्खामि । __हवे, जे माणस खेती चलावतो होय तेज खेती करवानी अवधि करे ग्रे स्पष्ट छे. अमुक श्रेकर जमीन राखवी, अमुक हल राखवां प्रेम प्रतिज्ञा करनार माणस खेती चलावतो होवो न जोइये श्रे पुरवार करवानी वधारे जरूर नथी. ते उपरान्त जेनी पासे दस गो साहस्रिक होय ते खेती करतो होय अपण अटलुंज स्वाभाविक छे. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ ] या उपरथी थेट तो स्पष्ट थाय छे के श्रावकधर्म लेती वखते 'खेती न करवी' ओवो निर्णय कोई श्रावके न कर्यो; वल्के, खेती करती वखते श्रमुकज जमीन राखवी, अमुकज हल राखवां अवो निर्णय कर्यो, अटले गृहस्थीने माटे खेती-नो विरोध करवाने वढले मात्र मर्यादा ज मूकी पहेला अध्ययनमां जे के ते जोईये. अमुक धंधो न दानो मनाय छे. -- कम्मश्रो शं समणोवासपुर्ण परणरस कम्मादागाइ जाणियन्वाई न समायरियव्वाई | त जहा – इङ्गालकम्मे, वणकम्मे, साठीकम्मे, भाढीकम्मे, फोढीकम्मे, दन्तवाणिज्जे, लक्खवाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, सवाणिज्जे, जन्तपीलणकम्मे, निलौंछाकम्मे, दवग्गिदावण्या, सरदद्दतलाव सोसण्या, असइणजपोसाया । पंदर कर्मादानो श्रापवामां श्राव्या करवो वुं कथन करतां कर्मा ज्यां ज्यां गृहस्थनी प्रवृत्तिनी आलोचना करवामां आवे छे त्यां त्यां या प्रवृत्तिओनो निषेध करवामां आव्यो छे. दा. त. जुयो योग शास्त्रप्रकरण ३ श्लो. १०० थी ११५, आवश्यक सूत्र. ६- प्रत्याख्यानाध्याय सू ७. · श्रवधा शब्दमां कृषिनी विचारणा बखते फोडीकम्मे शब्द ध्यान खेचे के. टीकाकारो तेनो अर्थ जमीन फोडवी अर्थात् 'कृपि' येवो करे छे. आ शब्दनो अर्थ समजवा माटे पहेलां कर्मादाननो अर्थ समजी लेवानी जरूर छे.. गृहस्थाने वधा धंधा करवा पडे छे ते धंधामां जो Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ ] असंयम आचरीने ते वर्ते तो जरुर' अनर्थ थाय. माटे अ जे कर्म करतो होय तो कर्म संयम पूर्वक श्राचारे, ओ उपदेश जैनशास्त्रोमां होय थे स्वाभाविक छे. जो कोई माणस मोटा पाया ऊपर अंगार कर्म - कोलसा बनाववा ई. - आचरे तो जरूर मोटी हिंसा था. अम करवामां अने केटलाय लाकडांश्री बालवा पडे, केटलाय वृक्षो कापवां पडे, अने से मोटा पाया ऊपर धंधो करतो होवाथी धेनु ध्यान पण न रहे के क्या लीलां लाकडां बली जाय छे, क्यां लाकडांओमां निरर्थक- बेदरकारी थी -जंतु मरी जाय छे; पण जो कोई गृहस्थ पोताना घर के परिवार माटे अंगारा बनावे तो थे बरावर ध्यान पण राखी शके अने अमां से जयगा राखी शके अंगार वगैर कोई ने चालवानुं तो नथीज, माटे गृहस्थनने अंगारा बनाववानी जरुर तो छे ज, मात्र मर्यादा बाहर जईने ये कर्म करे तो ग्रेना स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रतनो भंग थाय ज, परन्तु जे पोताना माटे, यतना करीने अंगारा बनावे तो मां अ व्रतनो भंग न धाय. बीजो दाखलो-भांडीकम्मे - गाडा बनावीने भाडे फेरवे तो मे गाडांनी बनावटमां जरा पण ध्यान न राखी शके अने श्रेवा गाडां बने के जे खेचवामां बलदने अगबड थाय, वेसारूओ ने तकलीफ थाय, निरर्थक वधारे लाकडू चपराय, वली गाडां भाड़े आपती वखते थे ध्यान पण न रहे के गाडांने वापरनार माणस बलदने, सारी रीते राखशे वा बलदने मार मारशे श्रतिभार लादशे अने प्रमाणे स्थूल प्राणातिपात विरमण नो जरुर भंग थायज, अथी. उलडं, 3 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४] जो कोई गृहस्थ पोताने माटेज वापरवा गाडां राखे, तो ते । ध्यान राखी शके, बलदने थती हानि ने रोकी शके अने श्रेवी स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रतथी उगरी शके. आ हेतुने लक्ष्यमा राखीने जानंदादि श्रावकोने पोताना वेपार अने। उपयोग माटे गाडी राखवानी छूट आपेली हती. तेज प्रमाणे 'फोडीकम्मे नो अर्थ समझवानो के हजारो अफर जसीन उपर श्रेकज माणस खेती करे-करावे-अने अने माटे हजारो मजूरो रोके, अने मोटापाया उपर कृपिकर्म चलावे तो जरूर स्थूल प्राणातिपात विरमणव्रतनो भङ्ग थायज कारण के पछी धरती खेडतां लोभ ने असंयम वधे, अने अथी खेड करनारा माणसो पाथी हद उपरान्त मजरी करवाय, अने खेतीमां थती हिंसा ओछी करवा तरफ ध्यान आपवाने बदले धान्यलाभ अने तेथी थता अर्थलाभ प्रत्येज दृष्टि रहे. खेती करतां हिंसा तो जरूर थाय छेज, कारण के पृथ्वी उपर अन अन्दर रहेला अनेक जीवोनी हानी थाय छे, अने अमाय ज्यारे हजारो अकर उपर अक माणसना नेतृत्व नीचे खेती थाय त्यारे श्रे जीवहानी पोछी करवा तरफ लच्य ज न जाय. पण जो अ माणस पोताना कुटुम्ब निर्वाह माटे खेती करे तो तेना स्थूल प्राणातिपातविरमणवतनो भङ्ग थतो नथी. खेती अनिवार्य छ। कारण के गृहस्थमात्र फलमूल खाइने जीवी शकवाना नथी, पण ज्यारे खेती करवीज पडे त्यारे यतनाथी करवी अने बहु मोटा पाया उपर न करवी अ फोडीकम्मेनो अर्थ छे. आहेतुने Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५ ] लक्ष्यमा राखीनेज इच्छाविधिपरिमाणमा खेतीनुं परिमाण बांध पढ्युं हतुं जो गृहस्थने खेती सर्वथा निषिद्ध होत तो शुं उपासकदशां सूत्र अम लखत तयाणंतरं च णं खेत्त्वत्युविहिंपरिमाणं करेछ । नन्नत्य पञ्चहिं हलसएहि नियत्तण-सइएणं इलेणं, श्रवसेसं सव्वं खेत्तवत्थुविहिं पञ्चक्खामि | - जो खेती आनन्दने माटे सर्वथा निषिद्ध होत तो भगवान् ने अमुक हल राखीने अमुक जमीनमां खेती करवी श्रेवी - प्रतिज्ञा श्रापत खरा ? श्रा रीते कर्मादानोनो अर्थ समजवानो छे. जे कर्म श्रनिवार्य होय ते तो कर्येज छुटको, परन्तु अ कर्म श्रसंयमथी न करवुं. जो बधेज खेती बन्ध भई जाय तो संसार कदी चाले खरो ? अने श्रावकने तो करवुं कराववुं सरखुंज के मेटले - खेती न करे अने बीजानी पासे करावी पण न शके फोडीकम्मे'नो श्रम कर के 'खेती करवीज नहिं' तो अर्थनी जरा पण संगति थती नथी. कारण के खेती न ज करवानी होय तो श्रानन्द श्रावक ने क्षेत्रवास्तु परिमाण करावेज केम ? पहेलां, श्रानन्द श्रावकनुं व्रत ज जुग्रो. अनु व्रत स्थूलप्राणातिपातविरमणनुं छे. स्थूलप्राणातिपातविरमणनो अर्थ शुं ? योगशास्त्र सेनी व्याख्या करतां कहे छे विरतिं स्थूल हिंसादेः द्विविधत्रिविधादिना । श्रहिसादीनि पञ्चाणुत्र जगदुर्जिना ॥ प्र. २. लो. १८. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४१ जो कोई गृहस्थ पोताने माटेज वापरवा गाडा राखे, तो ते ध्यान राखी शके, बलदन थती हानि ने रोकी शके अने अवी स्थल प्राणातिपातविरमण व्रतथी उगरी शके, या हेतुन लक्ष्यमा राखीने ज आनंदादि श्रावकोने पोताना वेपार अन उपयोग माटे गाडा राखवानी छट प्रापेली हती. तेज प्रमाणे 'फोहीकम्में नो अर्थ समझवानो छ हजारो ग्रेकर जमीन उपर अंकज माणस खेती करे-करावे-अने अने माटे हजारो मजूरो रोके, अने मोटापाया उपर कृषिकर्म चलावे नो जमर स्थूल प्राणातिपात विरमणवतनोभङ्ग थायज, कारण के पछी धरती खेडनां लोभ अने असंयम बधे, अने अथी खेड करनारा मारणसो पाथी हद उपगन्त मजूरी करवाय, अन खेतीमां थती हिंसा पोछी करवा तरफ ध्यान प्रापवाने बदल धान्यलाम अने तेथी थता अर्थलाभ प्रत्येज दृष्टि रहे. खता करतां हिंसा तो जमर थाय छज, कारण के पृथ्वी उपर अन अन्दर रहेला अनेक जीवोनी हानी थाय छे, अने अमांय ज्यार हजारो कर उपर ग्रेक मारणसना नेतृत्व नीचे खेती थाय त्यार अंजीवहानी अोठी करवा तरफ लन्य ज न जाय. पण जो अ माणस पोताना कुटुम्ब निर्वाह माटे खेती करे तो तेना स्थूल प्राणातिपानविरमणवतनो मन यतो नश्री. खेती अनिवार्य छ, कारण के गृहस्थमात्र फलमूल साइने जीवी शकवाना नथी, पण ज्यारे खेती करवीज पड त्यारे यतनाथी करवी अने बहु मोटा पाया उपर न करवी फोहीकम्मे नो अर्थ छ. प्रा हेतुने Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५ ] लक्ष्यमा राखीनेज इच्छाविधिपरिमाणमा खेतीनुं परिमाण बांधवू पड्युं हतुं जो गृहस्थने खेती सर्वथा निषिद्ध होत तो शु उपासकदशा सूत्र अम लखत तयाणंतरं च णं खेतवत्थुविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ पचर्हि इलसएहिं नियत्तण-सइएणं हलेणं, अवसेसं स०वं खेतवत्थुविहिं पञ्चक्खामि । जो खेती आनन्दने माटे सर्वथा निषिद्ध होत तो भगवान् अने अमुक हल राखीने अमुक जमीनमां खेती करवी अवी • प्रतिक्षा प्रापत खरा ? ___ आ रीते कर्मादानोनो अर्थ समजवानो छे जे कर्म अनिवार्य होय ते तो कर्येज छुटको, परन्तु अ कर्म असंयमथी न करवू जो वधेज खेती बन्ध थई जाय तो संसार कदी चाले खरो ? अने श्रावकने तो करवं कराव, सरखुज छे अटले श्रे खेती-न करे अने बीजानी पासे करावी पण न शके फोडीकम्मेनो अर्थ अम करी के 'खेती करवीज नहिं' तो अर्थनी जरा पण संगति थती नथी. कारण के खेती न ज करवानी होय तो श्रानन्द श्रावक ने क्षेत्रवास्तु परिमाण करावेज केम ? पहेलां, आनन्द श्रावकन व्रत ज जुओ. अनु व्रत स्थूलप्राणातिपातविरमणन छे. स्थूलप्राणातिपातविरमणनो अर्थ शु? योगशास्त्र अनी व्याख्या करतां कहे छेविरति स्थूल हिंसादेः द्विविधत्रिविधादिना । अहिंसादीनि पञ्चाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः ॥ प्र २. श्लो. १८ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५६] स्थूला-मिथ्याप्टिनामपि हिंसात्वेन प्रसिद्धा या हिंसा सा स्थूल• हिंसा । . . ............. भ्यः स्थूलहिंसादिभ्यो या विरतिनिवत्ति स्तामहिंसादीनि अहिंसासुनृता-स्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहान् पञ्चाणुव्रतानीति जिनास्तीर्थकराः जगदु प्रतिपादितवन्तः । ... वलि गृहस्थी केवी अहिंसा आचरवानी होय छे. तेनु निरूपण करतां योगशास्त्र जणावे छे के निरथिकां न कुर्वीत् जीयेयु स्थावरेवपि । हिसामहिसाधर्मः कांचन मोक्षमुपासकः ।। स्थावरा पृथिव्यम्बुतेजोवायुवनस्पयस्तेष्वपि जीवेयु हिंसां न कुर्वीत । कि विशिष्टां, निरर्थिको प्रयोजनरहितां, शरीरकुटुम्बनिर्वानिमित्तम् हि स्थावरेपु हिसा न प्रविपिता, या तु अनयिंका शीरकुटुम्बादिप्रयोजनरहिता तादृशीं हिसा न कुर्वीत । . अम कहीने स्पष्ट छट प्रापेली के के गृहस्थने शरीर कुटुस्व निर्वाह माटे करवी पडती हिंसा करवामां वांधो नथी. श्रावश्यकसूत्रनी टीकामां हरिभद्रसूरि स्थूल प्राणातिपातविरमणव्रतनी स्पष्ट व्याख्या करी वताचे छे, अने तेमां कृपिनु नाम पापी ने तेनी छूट प्रापे छे-जुओ नीचेना फकरो थूलगपाणाइवायं समणोवासगो पञ्चक्वाइ, से पाणाइवाए दुविहे पन्नत्ते तंजहा-सकप्पयो अ श्रारंभोश्र, तस्य समणोवासयो संकप्पयो जावजी. वाए पञ्चक्खाइ, नो प्रारंभश्रो, ..... • • थूलगपाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएवं इमे पञ्च अयारा जाणियन्वा, तंजहा-धन्धे, यहे, . छविच्छेए, अहभारे, भक्त पाणबुच्छेए । सूत्रम् । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ ] अस्य व्याख्या-स्थूलाः द्वीन्द्रियादयः स्थूलत्वं चैतेषां सकललोकिकजीवत्वप्रसिद्ध : एतदपेनयैकेन्द्रिया सूचमाधिगमेनाजीवत्वसिद्धरिति, स्थूला एव स्थूलकास्तेषां प्राणा:-इन्द्रियादयः तेषामतिपात: स्थूलप्राणातिपातः तं श्रमणोपासकः श्रावक इत्यर्थः, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, सङ्कल्पजश्चारम्भजश्च, सङ्कल्पाजातः सङ्कल्पज' मनसः सङ्कल्पात् द्वीन्द्रियादिप्राणिनः मांसास्थिचर्मनखवालदन्ताधर्थ व्यापादयतो भवति, प्रारम्भाजातः प्रारम्भजः, तत्रारम्भो-हनदन्तालखननतस्तत्प्रकारस्तस्मिन् शङ्खचन्दणकपिपीलिकाधान्यगृहकारकादिस्टनपरितापापद्रावलक्षण इति, तत्र श्रमणोपासकः सङ्कल्पतो यावज्जीव यापि प्रत्याख्याति, न तु यावजीवयैव नियमत इति 'नारम्भजमिति, तस्य अवश्यतयाऽऽरंभसद्भावादिति, श्राह-एवं संकल्पतः किमिति सूक्ष्मप्राणातिपातमपि न प्रत्याख्याति ? उच्यते एकेन्द्रिया हि प्रायो दुष्परिहाराः समवासिना सकल्प्यैव सचित्तपृथिव्यादिपरिभोगात् । भावार्थ अके गृहस्थी स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत लेवू. हवे स्थल जुवो कया ?बे इन्द्रियादि जीवो, कारण के अ जीवोने बधा लोको-स्वमत अने परमत वाला लोको पण-सजीव माने छ; अकेन्द्रियने नहिं; कारण के श्रे खुब सूक्ष्म होवाने लीधे श्रेने केटलाक अजीव गणे; हवे अबे इन्द्रियादि स्थूल जीवोनी हिमाथी गृहस्थे विरमवू. ज्ञानीपो जीवहिंसा चे प्रकारनी वर्णवेली छे. संकल्पथीं थती हिंसा ते संकल्पजहिंसा, अने। 'प्रारम्भधी थती ते आरंभजाहिंसा, जो कोई माणस अस्थि अने .. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] चर्म, नख, वाल, दांत, इत्यादिना वेपार माटे प्राणीओनी हिंसा करे, अर्थात् जाणीवुझीने, अप्राणीओने हणवानासंकल्पथीज तेमनो वध करे ते संकल्प हिंसा, हल दंतालीथी खोदबुं, अर्थात् कृषि कर्म करनार जो संकल्प राखे के मारे कृषि कर्म करती वखने शंख, चन्दणकादि त्रस जीवनी हिंसा करवी, तो ते हिंसा वयं छे, श्रने गृहस्थी अनु जायजीव पञ्चक्खाण लेवु जोइ, पण जावज्जीव पञ्चक्खाण लेवुज श्रेवो नियम नथी; अने तेमांय वली ए जीवोने मारवानो संकल्प न होय परन्तु अ करतां जे .... जीवो मरी जाय तेने प्रारंभ हिंसा थाय अंनु पञ्चक्खाण न लेवू; कारण के खेतीनो प्रारंभ अवश्य छ ज. हवे पुछे छे के सूक्ष्मस्थावरजीवोनी केन्द्रियोनी संकल्प हिंसाथी त्याग केम सूचवता नथी ? तो कहे छे के गृहस्थीयो माटे अकेन्द्रियोनी संकल्प हिंसाथी दूर रहे, श्रे । अशक्य छे, कारण के सचित्त पृथिव्यादि द्रव्योना उपभोगथी गृहस्थो दूर न रही शके. श्रा विचरणमा प्रापणे जोयु के गृहस्थोने स्थावर जीवोनी संकल्प हिंसानी पण छूट छे. स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रतमा स्थावर जोबोनी हिंसानो बाध नथी. ग्रेटले स्थावर जीवोनी हिंसानो क्यांय बाघ नथी, वली सजीवोनी हिंसामा पण मात्र संकल्प हिमानोज बाध छे. अने अमां य खेती माटे केटली बधी छूट प्रापेली छे ते तो स्पष्ट ज छे. हरिभद्र सृपिनो या फकरोज मात्र, गृहस्थोने खनीनी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६] संपूर्ण छूट प्रापेली छे से दर्शाववा पुरतो छे. जैनदर्शनमा प्रमाण अवा श्रा आचार्यना स्थूल प्राणातिपात विरमणबतना अर्थमा कंई खामी -भूल-होय से मानी शकाय नहिं. वली श्रा हेमचन्द्रना योगशास्त्रमाथी गृहस्थोने आपेली छटनो फकरो ध्यानमा लेवानो छे. । तदुपरांत, स्थूल प्राणातिपातविरमणव्रतना पांच अतिचारो वर्णवतां आवश्यक सूत्र कहे छे-जे उपासकदशा सूत्रमा पण श्रेज रूपे आवे छे थूलगपाणाइवायवेरमणस्स समोवासएणं इमे पञ्च अइयारा जाणियव्या, तंजहा-बन्धे, वहे, छविच्छेए, अइभारे, भत्तपाणवुच्छेए । अने अनी व्याख्या करतां हरिभद्र सूरि कहे छ बन्धो दुविधो दुप्पदाणं चतुष्पदाणं च, अट्टाए अणट्टाए य, अणहाए न वहति बन्धेत्तु म्; अट्ठाए दुविधो निरवेक्खो सावेक्खो य .. .... ... . ....... ... ." अविभारी ण ारोवेतन्वी, पुन्च चेष जा वाक्षणाए जीनिया सा मोक्तव्वा, ण होजा थपणा जीविता ताधे दुपदो जं सय उक्खिवति उत्तारेति वा भारं एवं वहाधिज्जति, बहल्ला जा साभावियानोवि भारातो ऊणश्रो कीरति, हलसगडेसु वि वेलाए मुयति । श्रा 'अतिभार' कृषि संबंधमां खास ध्यान खेंचे छे. बलदो उपर खब भार न लादवो, अमने हलमांथी वेलासर मुक्त करवा. अनो भंग करवाथी गृहस्थने अहिंसा बतनो भंग थाय छ. जो गृहस्थोने खेती निपिद्ध होय तो वलदने हलमाथी यथासमय मुक्त करवा अq हरिभद्र सूरि केवी रीते लखी शके ? Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० 1 आ उपरथी अम स्पष्ट पणे मालूम पडे छे के उपासकदशासूत्र, योगशास्त्र, आवश्यकसूत्र अने तेनी हरिभद्र सूरिनी व्याख्या बतावे छे के गृहस्थने जीवन धारणा माटे सावधानी पूर्वक खेती करवामां कोई हरकत नथी. हवे, दिगरवरशास्त्रना अनुयायी उपासकोना आधारना नियमो जोइये, घने मां खेती विशे शुं अभिप्राय छे, ते तपासी. ते माटे, 'सागारधर्मामृत' मां गृहस्थनी प्रवृत्तिनी आलोचना तपासवी घटे छे. सागारधर्मामृतना कर्ता आशाधर ( समय ई. स. १२५६ ) थे, अने ते दिगम्बर शास्त्र नो ग्रंथ छे सागारधर्मामृतमांथी नीचेनां अवतरणो तपासोसामान्येन पचागुव्रतानि लक्षयन्नाह— • विरति स्थूल हिसादे: मनोवाचोऽङ्गकृतकारितानुमतैः । क्वचिदपरेऽप्यननुमतैः पचहिंमाद्यणुव्रतानि स्युः ॥ - श्र. ४, गा. ५. व्याख्या करतां कहे छेइतो विस्तरः । हिसादित्वेन प्रसिद्धत्वाद्वा स्थूलो वधादि स्थूला हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिमहा इत्यर्थ' । स्थूलजीवादिविषयत्वान्मिथ्यादृष्टीनामपि श्री व्याख्या उपर टांकेला श्रावश्यक सूचना अवतरणमां छे, तेनी जेबी ज छे. के जेने स्वमत ने परमतना अनुयायीओ हिंसा तरिके स्वीकारता होय तेज स्थूलहिंसा. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६९ ] श्रागत जतां गृहस्थे केवी हिंसा तजवी जोईये - अने चर्चामां दिगम्बरोनो कृषि विशे स्पष्ट मत श्रावी जाय छे-ते विशे लखे छे इत्यनारम्भजां जह्याद्धिसामारम्भजां प्रति । व्यर्थस्थावर हिंसावत् यतनामावहेद्गृही ॥ 1 - श्र ४, ८ हो. टीका - जह्यात् त्यजेत् । कोऽमो, गृही, गृहवर्विश्रावकः । कां, हिंसां, कि विशिष्टाम् - अनारम्भजां श्रनारभे - श्रासनोपवेशादौ जातां तत्सम्भविनीं इत्यर्थः । उक्तं च १० गृहकार्याणि सर्वाणि दृष्टिपूतानि कारयेत् । कथं जह्यात् इति श्रनेन त्यक्तगृहोपासकोपदिष्टेन प्रकारैण । तथा श्रावदेत कुर्यात् । कोऽसौ गृही । कां यतनां समिविपरतां । कथं प्रत्युद्दिश्य । कां हिसां । किं विशिष्टां - प्रारम्भजां, कृष्याद्यारम्भसम्भविनों । किंचत् व्यर्थस्थावर हिंसावत् निष्प्रयोजनै केन्द्रियवधे यथा । - गृहवासी विनारम्भान न चारम्भो विना वधात् । त्याज्यः सः यत्नात्तन्मुख्यो दुस्त्यजस्त्वानुषङ्गिकः ॥ श्र. ४ श्लो १२ टीका- न भवति । कोऽसौ गृहवासो गेदाश्रम. । वथ विना । कस्नात्, आरम्भात् कृप्यादिजीवनोपायात् । तथा न भवति । कोऽसौ श्रारम्भः । कथं विना । कस्मात्, वधात् प्राण्युपमर्दनात् । यत एवं तत्तस्मान्याज्यः । कोऽसौ स वध. । कि विशिष्टो, मुख्यः इमं जन्तु श्रासाद्य श्रर्थित्वेन इन्मीति संकल्पप्रभवः । यत्नात् श्रवधानात् । तुर्विशेषे । तेन भवति । कोऽसौ श्रारम्भ । कि विशिष्टो दुस्त्यजः त्यक्तुमशक्यः । कि UT Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६२] . विशिष्टः, श्रानुपनिकः कृप्याद्यनुषग जातः कृप्यादी क्रियमाणे सम्भवनित्यर्थः। टीका अर्थने लगभग स्पष्ट करी ज नाखे छे छता केटलीक चर्चा आवश्यक छे. श्लोक दसमामा प्रेम जणाव्यु छे के गृहस्थे श्रावके अनारंभज हिंसा अटले के संकल्पहिंसा-नो त्याग करवो; प्रारंभज हिंसा छोडीशकाय नहि. माटे प्रारंभ करती वेलायतना राखवी. जेम व्यर्थ स्थावर जीवो न हणाय तेनी यतना राखवा मां आवे छे तेम प्रारंभज हिंसामा व्यर्थ जीवो न हणाय तेनी यतना राखची. श्लोकने सरल रीते गोठवी अनारम्भजां हिंसां जह्यातः आरम्भजां प्रति गृही व्यर्थस्थावरहिंसावत् यतनाम् आवहेत् । अने टीकामांरपष्टपणे जाव्यु के के कृषि प्रारम्भज हिंसा छे. ते पाचरवी अवश्य, परन्तु यतना राखवी. __ श्लोक वारमामां आम जणाव्यु छे के हिंसा प्राचरचा वगर गृहवास थई शकेज नहिं. माटे मुख्य वध-अर्थात् संकल्प हिंसा ज, जेने मुख्य हिंसा गणवामां प्रावी छे छोडचो, अने से न छोडी शकाय तेवी प्रारम्भ हिंसा सावधानीथी करवी. अने से प्रारम्भना उदाहरणमा अहिं पण कृप्यादि हिंसा गणावी छे. अटले, प्रा बन्ने श्लोको अने अनी टीकाश्रो जोतां सेटलु स्पष्ट थाय छे के गृहस्थोने प्रारम्भ हिंसा याधक नथी, अमणे Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३ ] तो मात्र संकल्पहिंसाथी ज दूर रहेवार्नु छे. ( पाहिं अक वात नोंध पात्र छे-के श्वेताम्बरो गृहस्थोने माटे स्थावर जीवोनी संकल्प हिंसा पण वाधक गणता नथी. जुवो में टांकेलो आवश्यक सूत्र-टीका फकरो-ज्यारे दिगम्बर गृहस्थो स्थावर जीवोनी पण संकल्प हिंसा ने त्याज्य गणे छे. प्रा मुद्दाने कृषि साथे कईज संबंध नथी) कृषि अनिवार्य छ, अने श्रावकोने ते करवामां हानि नथी श्रे स्पष्ट नीकलेलं. वली प्राधश्यक सूचनी माफक प्राणातिपात विरमणना अतिचारो वर्णवतां अतिभार पण वर्णवे छे. जुनो मुम्चन् बन्धं वधच्छेदापतिभारादिरोपणम् । भुक्तिरोधं च दुर्भावाझावनाभिस्वदाविशेत् ।।श्र.४; श्लो १६ अने आवश्यक सूत्र अने अनी व्याख्या ने लगभग शब्दशः अनुसरीने टीकाकार अतिभार विशे लखे छे चतुष्पदस्य तु यथोचितभारः किश्चिदूनः क्रियते हलशकटादिषु पुनरुचितवेलायामसौ मुच्यते इति चतुर्थः । अने पहेलांनी दलील अहिं पण लागु पडे छे के कृषि निषिद्ध होय तो हलमांधी योग्य काले बलदने छोडवा अवो नियम शा माटे करवामां आवे ? श्रा उपरथी निष्पन्न थाय छे के श्वेताम्बर शास्त्रोनी माफक ज दिगम्बर शास्त्रोमां पण गृहस्थोने कृषि कर्मनी छूट प्राप-- वामां आवेलीज हती. खेती विशेनी मुख्य दलीलो श्रावकना पाचार जीवनमाथी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ ] विशिष्टः, श्रानुषङ्गिकः कृष्याद्यनुपट्ट े जातः कृष्यादी क्रियमा सम्भवनित्यर्थः 1 टीका अर्थने लगभग स्पष्ट करी ज नाखे छे छतां केटलीक चर्चा आवश्यक छे. श्लोक दसमामां श्रेम जणान्युं छे के गृहस्थे श्रावके श्रनारंभज हिंसा ग्रेटले के संकल्प हिंसा - नो त्याग करवो; श्रारंभज हिंसा छोडी शकाय नहिं, माटे से आरंभ करती वेला यतना राखवी. जेम व्यर्थ स्थावर जीवो न हरणाय तेनी यतना राखवा मां आवे छे तेम आरंभज हिंसामां व्यर्थ जीवो न हणाय तेनी यतना राखवी. श्लोकने सरल रीते गोठवीओ अनारम्भजां हिंसां जह्यात् श्रारम्भजां प्रति गृही व्यर्थ - स्थावरहिंसावत् यतनाम् श्रावहेत् । अने टीकामां स्पष्टपणे जरा व्युं छे के कृषि श्रारम्भज हिंसा छे. ते श्राचरवी अवश्य, परन्तु यतना राखवी. - श्लोक वारमामां प्रेम जरणान्युं छे के हिंसा श्राचरया वगर गृहवास थई शक्रेज नहिं. माटे मुख्य वध अर्थात् संकल्प हिंसा न, जेने मुख्य हिंसा गणवामां श्रावी छे-छोडवो, अने अ न छोडी शकाय तेवी प्रारम्भ हिंसा सावधानीथी करवी. अने से आरम्भना उदाहरणमां अहिं पण कृप्यादि हिंसा गरणायी के. टले, या वने श्लोको अने ग्रेनी टीका श्रो जोतां मेटलुं स्पष्ट थाय छे के गृहस्थोने प्रारम्भ हिंसा बाधक नथी, मेमणे Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३ ] तो मात्र संकल्पहिंसाथी ज दूर रहेवानुं छे. (शहिं अक बात नोंध पात्र छे-के श्वेताम्बरो गृहस्थाने माटे स्थावर जीवोनी संकल्प हिंसा पण वाधक गणता नथी. जुवो में टांकेलो आवश्यक सूत्र-टीका फकरो-ज्यारे दिगम्बर गृहस्थो स्थावर जीवोनी पण संकल्प हिंसाने त्याज्य गणे छे.श्रा मुद्दाने कृषि साथे कंईज संबंध नथी) कृषि अनिवार्य छे, अने श्रावकोने ते करवामां हानि नथी श्रे स्पष्ट नीकलेलं. वली आधश्यक सूत्रनी माफक प्राणातिपात विरमणना अतिचारो वर्णवतां अतिभार पण वर्णवे छे. जुओ मुन्चन् बन्धं वधच्छेदापतिमारादिरोपणम् । भुक्तिरोधं च दुर्भावाद्भावनाभिस्तदाविशेतः ।।अ.४; श्लो १६ अने आवश्यक सूत्र ने अनी व्याख्या ने लगभग शब्दशः अनुसरीने टीकाकार अतिभार विशे लखे छे चतुष्पदस्य तु यथोचितभारः किश्चिदूनः क्रियते हलशकटादिषु पुनरुचितवेलायामसौ मुच्यते इति चतुर्थः। अने पहेलांनी दलील अहिं पण लागु पडे छे के कृषि निषिद्ध होय तो हलमांधी योग्य काले बलदने छोडवा वो नियम शा माटे करवामां आवे ? आ उपरथी निष्पन्न थाय छे के श्वेताम्बर शास्त्रोनी माफक ज दिगम्बर शास्त्रोमां पण गृहस्थोने कृषि कर्मनी छूट आप-- वामां आवेलीज हती. खेती विशेनी मुख्य दलीलो श्रावकना आचार जीवनमाथी. - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] सिद्धकरी, अने थे माटे प्रमाणभूत शास्त्रोने पण तपास्यां. हवे जुदां जुदां शास्त्रोमांथी मलतां वीजा प्रमाण नोंधीश. - आवश्यक सूचना पहेला विभागमां, पहेलांना लोको केवा - हता, तेनुं वर्णन करेतुं छे से लोकोने आदीश्वर भगवा केटलाय आवश्यक व्यवसायो शीखच्या अनु वर्णन आवे छे. अम पहेलुंज स्थान कृषिनुं प्रावे छे C कम्मं किसिवाणिजाइ मामणा जा परिग्गहे ममया । पुत्रि देवेहिं कया त्रिभूमणा मढणा गुरुणो ॥ इत्यादि धरण व्यवसायो गीखवाड्या, परन्तु आप कृषि तरफ ध्यान आपीछे. ऋषभदेवे लोकोने कृपि शीखडावी. कृषि जो निषिद्ध होत तो ज्ञानी भगवान कृषि शा माटे गीखवाडे ? कृषि धर्माचरण होत तो आदीश्वर भगवाने जरूर कोई वीजो धर्म्य व्यापार उपदेश्यो होत परन्तु प्रेमणे वीना वधा व्यापारोमां कृपिने प्रथम स्थान प्राप्यं से ज कृपिनी अगत्य अने अनुं निर्दोषपणु साधवा पुरतुं छे. जन समाजने कृपिनी जरूर श्रादिकालश्री दती ने श्रादिकालश्री भगवाने खेती नो उपदेशकर्यो हतो. आ प्रमाण खेती अने जैनधर्म वचे विरोध दर्शावे छे ज जैनधर्ममां दाननो महिमा खूप आवे छे. शुद्ध ने पवित्र दान करवाथी केटलाय गृहस्थोने कर्मनी निर्जरा अने अनेक विध पुग्यो थपलानी कथाओनी जैन साहित्यमां खामी नधी Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६५ ] अने तेमांय अन्नदाननो महिमा ओछा गवायो नथी. गृहस्थ योगना शिक्षावतोमा चोथु शिक्षा व्रत अतिथिसंविभाग आवे छे. अतिथिसंविभाग व्रत अटले साधु श्रमणो जेमने पर्व के उत्सवो छ नहि, अमने शुद्ध श्रने ग्राह्य वा साहारनुं शुभवृत्तिथी दान करवु ते. जुओ योगशास्त्र दानं चतुर्विधाहारपात्राच्छादनसमनाम् ? अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागवतमुदीरितम् ।। प्र.३, गा८७, अने आधार टांकतां लखे छे-थदूचुः नायागयाणं कप्पाणेजाण, अन्नपाणाईणं दसाणं देसकालसद्धासक्कारक्कमजुश्र पराय भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए संजयाणं दाणं अतिहिसंविभागो। छाया-न्यायागताना, कल्पनीयाना, अन्नपानादीनां द्रव्याणां देशकाल प्रद्धासत्कारक मयुक्त' परया भया श्रात्मानुग्रहबु या संयतानां दानं भतिथिसंविभागः ।। अन्न खेतीथीज उत्पन्न थाय छे हवेजो खेती श्रावकोने गहर्य होय तो श्रावकोने करेला दाननो महिमा शा माटे गावामां आवे छे. खेतीनो सर्वथा निषेध करनार धर्म, खेतीथी उपजता अन्नदाननी बाटली बंधी प्रशंसा करे ? अन्नदाननी प्रशंसा थाय छे अनो अर्थज के खेती श्रावको ने वाधित नथी. भगवतीसूत्रमा केवा केवा पापी लोकोनी केवी खराव गति थई अ वर्णवती अनेक क यात्रो आवे छे. पण अक पण वार्ता अवी नथी के कोई खेडुत खती करवाथी नरके गयो. थी उलटु, उपासकदशासूत्रमा प्रावती कथानोमां वधा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६ ] उपासको श्रावक-जेश्रो बहोलो वेपार अनेखती-चलावता हता, तेओ वधा शुद्ध श्रावक धर्म पालीने मोक्षमार्गे गया अवी । __ वार्तायो प्राव छ. कृपिकर्म जो जैनधर्म ने मान्य न होत, तो ग्रेवी कथानो जरूर आवत के कृषिकर्म-करनार लोको पापकर्मीयो छे. __वनस्पति अाहारनी वधारे तरफेण करतो धर्म कदाच जैनधर्मज छे. जनसमूह मांसाहार ओछो करतो थाय ते माटे स्पष्ट ज के के खती वधारवीज जोईये. प्राणीयोने खेतीना काममा लेवां जोईये अने कसाईखानामां जतां अटकारवा जोईए. येग्री मांस माधु थाय, अने हिंसा अोछी थाय. आ स्थिति होवादी अहिंसा प्रधान वनस्पति अाहारनी तरफेण करतो जैनधर्म कृपिनो विरोध शी रीते करे ? ___ उपरनी चर्चा उपरथी अम सहेजे मालूम पड़ी श्रावशे के खरा व्रतधारी श्रावकने पण, मात्र संकल्प-जीवो ने हणवानी इच्छाज खरी हिंसा के, अने प्रारभ हिंसा तो वाधक नथीज. जनोनी अहिंसानी मान्यतामा विकृति थवाधीज जैनधर्मने श्रने कृपिकमने विरोध में ग्रेधी भूल भरेली मान्यता फेलवा पामी छ . हिंसानी कल्पना मात्र बाह्य हिसानी न हती परन्तु प्राभ्यन्तर हिंसानी हती. मनमां कपायो होय ग्रेज हिंसा छे अने तेश्रीज इद्रियनिग्रह की कयायोने निर्मल करतो जोईये. संकल्पहिना उपरजजेनशानोभार मुक्यो छे ते आ कथनने Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६७ ] सप्रमाण वनावे छे. परन्तु जेम जेम धर्ममा विकृति पेठी तेम तम लोको प्रांतरतपमांशी बाह्य तपना श्राडम्बरमा पड्या. आतर तप पधारे उच्च अने कठण हतुं, मनमां कोई प्रत्ये द्वेष न करवो, कोई प्रत्ये वैरभाव न राखवो, कोई ने प्राणहानि थाय अया संकल्प न करवो श्रेज खरे आंतर तप हतुं. अने म्वाभाविक रीते ज वाह्य कर्मनो मार्ग सहेलो देखायो, अने नवला लोको अने अनुसर्या. मात्र बाह्य जीवोनी हिंसा न करवी अज अहिंसा, वो प्रचार चाल्यो; अने जैनोनी अहिंसान विकृत अने संकुचित स्वरूप फेलावा लाग्यु. साधु आचर, मनोव्यापार शुद्ध रहे श्रेवी खरी अहिंसक प्रवृत्तिने बदले वहारथी जीवदयानो आडवर फेलातो चाल्यो. अने आजे एची विकृतदशा पहोंची गया छीग्रे के चामडानोमोटो वेपार करीग्रेछी, हीरा मोतीनो वेपार करीछीजेमां छीपने मारी नाखवीज पडे छे, मीलो चलाची छी, अने अवेपारमा कई बाध नथी आवतो, पण खेती करवामां जीवदयानो प्रश्न आडे आवे छे, हिंसान पाप पाडे आवे छे! जे व्यवसाय बगर समाजजीवन अशक्य छे ते व्यवसाय तरफ पापणे उपेक्षावृत्ति करी छीओ. खेडूतनी अगत्य ओछी थई जतां श्रने अना ग्रामजीवन तरफ दुर्लक्ष्य करवाथी प्राजे आपणु सामाजिक जीवन वे टल छिन्नविच्छिन्न थई गयु छे. ते तो हनी प्रत्यक्ष ज छे. शास्त्रमा कयु छ के खेती करवामां हिंसा के माटे खेती न करवी' अ भूलभरेली मान्यता प्राप Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८ ] ने केटला मोटा भुलावामां नाख्या छे ! जे कर्म वगर पृथ्वी पर मानव जातने जीववुं अशक्य छे. ते कर्मनो जैनधर्म विरोध करे छे, प माननार जैनधर्मने विकृतिनी कई कक्षाए लई जाय छे. तेनो ताग काढवो अशक्य छे. धर्मनां मुख्य त्रण पासा -धारण पोषण अने सत्वसंशुद्धि. खेती मां कया अंगथी बिरुद्ध छे ? वल्के, खेती ज समाजनुं धारण अने पोषण करे छे. सात्विक रीते रहनार, पृथ्वीमांथी ज पोतानी जरूरियात मेलवनार, वधारे लोभ न राखनार श्रमजीवी कृषिकार माटे तो कृषि अ ज धर्म छे. अ अ खेतीनो विरोध जैनधर्म तो शुं, पण कोई पण धर्म न करी शके. श्री किशोरलाल मशरूवाला "जीवनशोध" मां लखे छे "धर्मनी कासर तेना आचरनार करतां वधारे मोटा क्षेत्र व्यापारी होवाथी, ग्रे क्षत्रनी विशालता कई बावत मां केटली होय त्यां सुधी योग्य गणाय, तेनी से मर्यादा रहे छे. ये मर्यादा न समभवाथी, तारतम्य ( Sense of Proportion ) नो भंग थाय छे अने परिणामे धर्म श्राचरनार पोते पंगु वनी जाय छे. श्रे मर्यादानो, देश-काल वगेरेनी परिस्थिति प्रमाणे, संकोच विकास थाय. श्रेवी मर्यादाने जे प्रजा समझी शके छे अने पोताना जीवनमां तेने अनुकूल फेरफार करी शके छे, ते प्रजा जीवनमां टकी रहे छे अने आगल वधती रहे छे. ' मर्यादानी योग्यता समजवानी कसोटी ते श्री धर्मनुं स्वरूप. अवुं न ठरावनुं जोइये के जेथी तेने आचरनार व्यक्ति के वर्गनां Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६] . जीवनमा धारण पोषण अने सत्वसंशुद्धि अशक्य के अघटित रीते परावलंबी थई जाय.दाखला तरीके खेतीमां हिंसा रहेली छे अटले, खेती न करवाथी केटलांक प्राणीयोनुं सुख बधे छ: अथवा, शस्त्रधारणमां हिंसा रहेली छे. पण खेती के शस्त्रनो त्याग करनार वर्ग पोतानां जीवन निर्वाह तथा सत्वसंशुद्धिनी बावतमां अघटित रीते परावलंबी बनी जाय छे. जो पाखो मनुप्यसमाज मे धर्म रवीकारे तो मनुप्यजीवन अशक्यवत् बने अयश संभव के ग्रेटले, धर्म मानवसमाजनां अर्थ अने कामनी सिद्धिने विरोधी होवाथी अने धर्म समजगमां भूल थाय छे." (खंड पहेलो-चौथो-पुरुषार्थ ) खेती करवामां हिंसा थाय छे अम माननार विचार करे के कया कर्ममां हिंसा नथी ? 'जीवैः प्रस्तमिदं सर्व' अनुसार जीवन जीवq अ पण श्रेक हिंसाज छे ने? परन्तु जीवन ने जेम शद्ध अने विकृति रहित जीवीए तेमांज जीवननी सार्थकता छे. पाणीमां असंख्य जीवो छ अम जैनधर्म कहे छे-ग्रने आधुनिक विज्ञानशास्त्र पण श्रेनुं समर्थन करे छे-जैनशास्त्रमा अनु श्रेक उदाहरण प्रसिद्ध छे के पाणीना श्रेक टीपामांजेटला जन्तुओ छे अ बधाय जो कबुतरनु स्वरूप धारण करे तो पृथ्वी उपर समाय नहि, छतां जैनधर्म पाणी पीवानी मनाई करी . छ ? उलटं पाणीने गालीने, गरम करीने, शुद्ध करीने पीवानी सूचना प्रापेली छे. कारण के पाणी वगर जीवन धारण Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [७० ] अशक्य छे. अवीज रीते, खेतीमां-हिंसा थाय ठे-जीवो मरे हे अवात साची पण जैनधर्म खेतीनी मनाई करी नथी. उलटुं यतनाथी, सावधानीथी, खेती करवी अवो उपदेश प्रापेलो के कारण के खेतीथी नीपजतुं अन्न पाणी जेटलज जीवनधारण ने माटे यावश्यक छ. जैनशास्त्रोमां कह्युं छे के मनुष्यजन्म दुर्लभ छे, माटे प्रमाद न करो. मोन माटे मनुष्य देहज साधन छे. माटे मनुप्य देहने टकावीने श्रेयप्राप्तिने मार्ग जq ) दरेक श्रेयाथिर्नु ध्येय होवू जोइये. मनुष्य देहने टकाववा माटे अन्न अनिवार्य के अने अन्न, माटे खेती अनिवार्य छे. अने अथी, खेतीनो विरोध जैनधर्ममां शाने होय? ___ वली, खेती बाटली सावधानीथी अने पाटली हद सुधी करवानी मर्यादा व्रतधारी शुद्ध धावक ने माटेज छे. सामान्य जैन गृहस्थोने तो खती करवामां जरा पण वाध न होई शके. उपासकदशामा जे श्रावकोनां चरित्रो छे ते तो आदर्श श्रावकोनां छे. अने तेमने पण खेती करवानी छट हती, तो पछी सामान्य जन समूह, के जे आदर्श श्रावकनी कोटिमां न श्रावी शके, पण जेणे जैनधर्म अपनाव्यो होय, तेने तो खती करवामां शा वाध होई शके ? आ कालमां जैनधर्म अने कृषिकर्म नो प्रश्न थाय श्रेज । अनुचित छे. जीवन धारण पोपणना अंक मात्र पुराणा मार्गनी विरुद्ध कोई धर्म होई ज न शके, अने तेय हिन्दुस्तानमा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१ ] तो नहिंज. अक वखन वो हतो के ज्यारे हिन्दुस्तानमां अन्न खुटतुं नहिं, अने अनेक यशो करवा छतां घी दूध दुर्लभ थतां नहि धीरे धीरे देशनी राजकीय स्थिति पलटाई अने आजे श्रेवी स्थिति प्रावी छे के हिन्दना अनाजना भंडार कही शकाय अवा प्रांतना लोको ने मुठी चोखा माटे हाथ लांवो करवो पडे छे. आवा समयमां कृषिनी अगत्य समजाववानी भाग्येज जरूर होय लाखो वल्के करोड़ो माणसोनों व्यवसाय ज खेती होय अने जगत श्राखु अ व्यवसाय उपर अवलवित होय त्यारे व्यवसाय निषिद्ध हाई न ज शके. ___ अर्यशास्त्रीओ कहे छे के हिंदुस्तानमांजोईये अथी बधारे वस्ती छ भने अथी लोको भुखे मरेछ. पण ) अर्थशास्त्रीओने हिन्दुस्ताननी परिस्थितिनी खबर नथी प्रेम प्रापणे कही शाकीने हिंदुस्तानमां केटलीय जमीन वणखेडाअली पडी छ, बालाकप्रदेशाने लोकोओ निरुपयोगी गणी नाख्या छे अने सरबार देशनी न होवाथी देशनी आर्थिक अने सामाजिक उन्नति तरफ ध्यान नथी अापती-अने आने लीधे अम लागेछ के जाणे हिन्दुस्तानमां वस्ती बधी पडी छे अने भूखमरो फेलायो छे; जो नकामी पड़ी रहेली जमीनने खेडवामां यावे, कृषिविषयक योग्य शेधिखोलो थाय अने स्वदेशी सत्ता से काम हाथमा ले तो सारोद्धार संभवी शके हिंदुस्ताननां चालीसे करोड़ जीवमाथी कोई ने भूख्या न रहेQ पडे अवी हिन्दुस्ताननी प्रावादी खेती उपर ज अवलो छ आवे वखते खेती करवी, श्रे अंक प्रापधर्म नबी परन्तु अंक फरज छे. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२ ] जैनशास्त्रोग्रे गृहस्थजीवनमा खतीनो विरोध कोज नछ श्रेम स्पष्ट पणे-उपर जणावेलां प्रमाणार्थी-मालूम पडे छे. जीवनमा सत्य अने अहिंसातुं पालन करणे जीवननां धारण पोपण अने सत्वसंशुद्धि ने माटेनी वधी प्रवृत्ति श्रेया श्रे यतनाथी करवी अमांज अनो धर्म समालो हे अने श्रेम गतनापूर्वक आचरण करनार मुमुनु कई पाप कर्म बांधतो नथी. अज आपणु धर्मवचन छे: जयं चरे, जयं चिट्ठ, जयं श्रासे, जयं सए । जयं भुजन्तो भामंतो पावं कम्मं न बन्धह। निबंधनियोजकःप्रबोधचन्द्र वेचरदास पंडित MMADURAISHIDANAUTIYAMITTALLEN BOSSETTOMIFIm JILIM נוונת DOAX HD JURA N Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कृषिकर्म और जैनधर्म प्राथामिक-भूमिका जिस प्रकार भारतवर्ण को धर्म-प्रधान देश कहते हुए प्रत्येक भारतीय का मस्तक गौरवान्वित होता है, उसी प्रकार . चीन काल से भारतवर्ण कृषि प्रधान देश भी कहा जाता है। वस्तुतः आध्यात्मिकता की दृष्टि से धार्मिक विवक्षा से यह देश धर्मप्रधान है तो कला-कौशल एवं उद्योग-व्यवसाय निशान भारतवर्ष के जितने नाम इतिहास एवं धर्म-शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं, उनमें इस पवित्र ऋषिभूमि को 'आर्यावर्त' नाम से भी संबोधित किया गया है। आर्यप्रजा का जिसमें निवास हो वही क्षेत्र आर्य-क्षेत्र, भार्यमूमि तथा आर्य-प्रदेश कहलाता है । अस्तुः जैन वाङ्मय की प्राचीनता एवं साहित्यशोधकता अति गहन, गृढ़ एवं गवेषणीय है। जैन-धर्म जहाँ सूक्ष्मातिसूक्ष्म Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७२ ] जैनशास्त्रोग्रे गृहस्थजीवनमा खतीनो विरोध काज नथी श्रेम स्पष्ट पणे-उपर जणावेला प्रमाणाथीं-मालूम पडे छे. जीवनमा सत्य अने अहिंसातुं पालन करवु जीवननां धारण पोपण अने सत्वसंशुद्धि ने माटेनी वधी प्रवृत्ति श्रेयार्थी यतनाथी करवी अमांज अनो धर्म समालो छ; अने प्रेम गतनापूर्वक आचरण करनार मुमुनु कई पाप कर्म वांधतो नथी. अज अापणु धर्मवचन छे: जयं चरे, जयं चिट्ठ, जयं श्रासे, जयं सए । नयं भुजन्तो भामंतो पावं कम्मं न चन्धह ।। निबंधनियोजकःप्रबोधचन्द्र वेचरदास पंडित Mumniuminattails Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cu कृषिकर्म और जैनधर्म प्राथमिक भूमिका :::: ():::: जिस प्रकार भारतवर्ष को धर्म-प्रधान देश कहते हुए प्रत्येक भारतीय का मस्तक गौरवान्वित होता है, उसी प्रकार प्राचीन काल से भारतवर्ष कृषि-प्रधान देश भी कहा जाता है । वस्तुतः आध्यात्मिकता की दृष्टि से धार्मिक विवक्षा से यह देश धर्मप्रधान है तो कला-कौशल एवं उद्योग व्यवसाय की दृष्टि से कृषिप्रधान । भारतवर्ष के जितने नाम इतिहास एवं धर्म-शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं, उनमें इस पवित्र ऋषिभूमि को 'आर्यावर्त' नाम से भी संबोधित किया गया है । आर्यप्रजा का जिसमें निवास हो वही क्षेत्र आर्य-क्षेत्र, आर्यमूमि तथा श्रार्य - प्रदेश कहलाता है । अस्तुः जैन वाङ्मय की प्राचीनता एवं साहित्यशोधकता श्रति गहन, गूढ़ एवं गवेषणीय है । जैन धर्म जहाँ सूक्ष् - - Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७४ ] श्राध्यात्मिकता का आदेश करता है वहाँ पर अपने सांसारिक व्यवहार एवं गृहस्थ धर्म-संचालन के लिये वह मर्यादित जीवन का भी यथेष्ट विधान करता है । परन्तु इतनी गृढ़ता एवं विचारशीलता के अध्ययन का हमारी वर्तमान जैन समाज में प्रभाव होने के कारण सम्प्रति कतिपय जटिल समस्याएँ इस प्रकार उपस्थित होती हैं, जिनका समाधान प्रति सरल होते हुए मी दुष्कर सा जान पड़ता है । वस्तुतः मार्ग दो प्रकार के होते हैं - १निवृत्ति मार्ग तथा २ प्रवृत्तिमार्ग | दूसरे शब्दों में कहा जाय तो उत्सर्ग मार्ग तथा अपवाद मार्ग भी कहा जा सकता है | प्रथम मार्ग जिसका कि नाम उत्सर्ग मार्ग है, श्रमणधर्म कहा जाता है - इस मार्ग का श्राराधक त्रिकरण एवं योगत्रय रूप सावद्य कार्यों से सर्वथा मुक्त रहता है जब कि दूसरे अपवादमार्ग का पालक धर्म की आराधना तो करता है परन्तु सांसारिक मोह - पाशादि बन्धनों से सर्वथा निवृत्ति प्राप्त नहीं कर सकता । उसे अपने गृहस्थधर्म के संचालनार्थ, कुछ अपवाद मार्गों का अवलम्बन लेकर उपयोगपूर्वक धर्म की शोध करनी पड़ती है । इसी धर्ममार्ग का नाम श्रावकधर्म है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, प्रत्येक व्यक्ति उत्सर्ग मार्गानुसारी नहीं हो सकता है। दोनों वर्गों में से एक वर्ग श्रपवाद मार्गानुसारी होकर अपने लक्ष्यविन्दु की सिद्धि का लाधक बनता है । अत्र विचार इस बात का करना है कि Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [७५] ऐसे अपवाद मार्ग कौनसे हैं ? स्थानांगसूत्र के ३ रे ठाणे प्रथम उद्देशे के १३८३ सूत्र में तथा जीवाभिगमसूत्र में मनुप्य के तीन भेद किये गये हैंरला कर्मभूमिज,रा अकर्मभूमिज तथा ३रा श्रान्तरद्वीपिक। कर्मभूमि की व्याख्या करते हुए शास्त्रकार ने यह बतलाया है कि कृपि, वाणिज्य, तप संयमादि अनुष्ठान प्रधान भूमि को कर्मभूमि कहते हैं । अर्थात् असि, मसि एवं कृषि का जहाँ व्यापार होता हो वही कर्मभूमि है। उपरोक्त तीन प्रकार के व्यापारों में से एक भी व्यापार का जहाँ असद्भाव हो वह स्थान निकर्मण्य एवं निरुपयोगी है। उक्त तीन कार्यों को उपयोगपूर्वक करने वाला ही अपने चरम लक्ष्य की सिद्धि प्राप्त कर सकता है। शेप दो अर्थात् अकर्मभूमिज तथा श्रान्तरद्वीपिक मनुप्य निर्व्यवसायी, निरुद्योगी एवं निष्कमण्य रहते हैं तथा उनकी जीवन-डोर कल्पवृक्षों के आश्रित रहती है। अतः वर्तमान काल की दृष्टि से तथा मुमुचुमात्र के हितसाधन की दृष्टि से वे स्थल महत्त्व पूर्ण एवं उपादेय नहीं कहे जा सकते हैं । महत्व पूर्ण एवं उपादेय स्थल वही कहा जा सकता है जहाँ मानवदेह के धारण करने की सार्थकता सिद्ध हो सके। यदि कोई यह शंका करे कि अकर्मभूमि में कुछ पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता, किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं की जाती, और ऐसा होते हुए भी वहाँ का जीवन सुखप्रद ही है फिर इस मायाजाल और मोह-प्रपंचमय भूमि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] श्राध्यात्मिकता का आदेश करता है वहाँ पर अपने सांसारिक व्यवहार एवं गृहस्थ धर्म-संचालन के लिये वह मर्यादित जीवन का भी यथेष्ट विधान करता है । परन्तु इतनी गृढ़ता एवं विचारशीलता के अध्ययन का हमारी वर्तमान जैन समाज में अभाव होने के कारण सम्प्रति कतिपय जटिल समस्याएँ इस प्रकार उपस्थित होती हैं, जिनका समाधान प्रति सरल होते हुए मी दुष्कर सा जान पड़ता है । वस्तुतः मार्ग दो प्रकार के होते हैं - १ निवृत्ति मार्ग तथा २ प्रवृत्तिमार्ग | दूसरे शब्दों में कहा जाय तो उत्सर्ग मार्ग तथा अपवाद मार्ग भी कहा जा सकता है | प्रथम मार्ग जिसका कि नाम उत्सर्ग मार्ग है, श्रमणधर्म कहा जाता है - इस मार्ग का आराधक त्रिकरण एवं योगत्रय रूप सावद्य कार्यों से सर्वथा मुक्त रहता है जब कि दूसरे अपवादमार्ग का पालक धर्म की आराधना तो करता है परन्तु सांसारिक मोह - पाशादि बन्धनों से सर्वथा निवृत्ति प्राप्त नहीं कर सकता । उसे अपने गृहस्थधर्म के संचालनार्थ, कुछ अपवाद मार्गों का अवलम्वन लेकर उपयोगपूर्वक धर्म की शोध करनी पड़ती है। इसी धर्ममार्ग का नाम श्रावकधर्म है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है; प्रत्येक व्यक्ति उत्सर्ग मार्गानुसारी नहीं हो सकता है। दोनों वर्गों में से एक वर्ग पवार मार्गानुसारी होकर अपने लक्ष्यविन्दु की सिद्धि का बाधक बनना है । अव विचार इस बात का करना है कि Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७५ ] ऐसे अपवाद मार्ग कौनसे हैं ? ___ स्थानांगसूत्र के ३ रे ठाणे प्रथम उद्देशे के १३८३ सूत्र में तथा जीवाभिगमसूत्र में मनुप्य के तीन भेद किये गये हैं ला कर्मभूमिज,रा अकर्मभूमिज तथा ३रा प्रान्तरहीपिक। कर्मभूमि की व्याख्या करते हुए शास्त्रकार ने यह बतलाया है कि कृपि, वाणिज्य, तप संयमादि अनुष्ठान प्रधान भूमि को कर्मभूमि कहते हैं। अर्थात् असि, मसि एवं कृषि का जहाँ व्यापार होता हो वही कर्मभूमि है। उपरोक्त तीन प्रकार के व्यापाशं में से एक भी व्यापार का जहाँ असद्भाव हो वह स्थान निष्कर्मण्य एवं निरपयोगी है। उक्त तीन कार्यों को उपयोगपूर्वक करने वाला ही अपने चरम लक्ष्य की सिद्धि प्राप्त कर सकता है। शेष दो अर्थात् अकर्मभूमिज तथा श्रान्तरद्वीपिक मनुप्य निर्व्यवसायी, निस्दयोगी एवं निकमराय रहते हैं तथा उनकी जीवन-डोर कल्पवृक्षो के अाश्रित रहती है। अतः वर्तमान काल की दृष्टि से तथा मुमुक्षुमात्र के हितसाधन की दृष्टि से वे स्थल महत्त्व पूर्ण एवं उपादेय नहीं कहे जा सकते हैं । महत्व पूर्ण एवं उपादेय स्थल वही कहा जा सकता है जहाँ मानवदेह के धारण करने की सार्थकता सिद्ध हो सके। यदि कोई यह शंका करे कि अकर्मभूमि में कुछ पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता, किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं की जाती, और ऐसा होते हुए भी वहाँ का जीवन सुख भद ही है फिर इस मायाजाल और मोह-प्रपंचमय Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७६ ] को श्रेयस्कर क्यों कहा जाय ? इस संकटमय जीवन-भूमि को भी मानव जीवन के लिए उपादेय क्यों माना जाय ? उपरोक्त शंका का समाधान यही है कि उस निष्कर्मण्य एवं परवश जीवन से क्या जहाँ विना स्वोपार्जित वाह्यसाधनों के उदरपूर्ति भी दुष्कर हो जाय । यद्यपि यह भूमि संकटमय जीवन भूमि है-परन्तु जिस प्रकार स्वर्ण की संघर्पणादि चार प्रकार से परीक्षा होती है उसी प्रकार से त्याग, गील, गुण एवं कर्म के द्वारा मनुप्य की भी कसौटी की जाती है-इस भूमि में मानव अपने विकास का एवं सन्मार्ग का शोधक वनता है-आवागमन के भव-भ्रमण के चक्कर में से निकल सकता है। प्रथम यहाँका जीवन संकटापन्न एवं दुःखद दृष्टिगोचर होता है परन्तु पुरुषार्थ की उच्चतम कसौटी से मनुप्य-मात्र स्ववशता (आत्मविजय ) को सहज ही वरण कर सकता है। यह जीवन प्रथम पापकारी एवं प्रवृत्तिमय भी हो परन्तु प्रवृत्ति में से निवृत्ति प्राप्त करना ही यथार्थ विजय है। विपय-प्रवेश--- उपरोक्त कर्म भूमि का वर्णन करते हुए प्राचार्य श्री उमास्वाति ने अपने तत्वार्थ सूत्र में मनुष्यों के दूसरी तरह से दो मेद किये है-"प्रार्या म्लेच्छाश्च" प्रार्य शब्द के विस्तृत विवेचन में प्राचार्य श्रकलंक देव ने प्रार्य के ६ भेद किये है:-१ क्षेत्रार्य, २ जात्याय, ३ कुलार्य, ४ कर्माय, ५ शिल्पार्य पारम्भापार्य। मनुचित विपय विस्तार के भय से यहाँ केवल Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७ ] प्रथम तथा चतुर्थ मेद की व्याख्या करके अपने प्रतिपाद्यविषय का विवेचन करना ज्यादा युक्तियुक्त होगा। क्षेत्रायःपन्दरह कर्म भूमियों में जन्म धारण करने वाला ही क्षेत्रार्य कहा जाता है। कर्म की दृष्टि से वही आर्य कहा जाता है जो अनाचार्यक कर्म की अपेक्षा से आर्य है । यथा-यजन, याजन, अध्ययनाध्यापन, कृषि, वाणिज्य तथा लेखनादि के कर्ता कार्य की कोटि में परिगणित किये जाते हैं । कार्य के उक्त विवेचन से हमारे विषय की पुष्टि में पूर्ण समर्थन मिलता है कि प्राचीन काल में जिस प्रकार अध्ययनाध्यापनादि कार्य वरेण्य एव ग्राह्य समझे जाते थे उसी प्रकार कृषि कर्म भी एक पवित्र कार्य समझा जाता था। यद्यपि जैन धर्म का सार एक शब्द में कहा जाय तो 'त्याग' है परन्तु जहाँ तक मर्यादित गृहस्थ जीवन यापन किया जाता है वहाँ तक प्रत्येक मानव को प्रजा-पोषक एवं अल्पारंभजन्य किसी न किसी वृत्ति का आश्रय लेना ही पड़ता है। ऐसी वृत्ति यदि विश्व में कोई होवे तो कृषि के अतिरिक्त अन्य दृष्टि गोचर नहीं होती। कृषिकर्म जैन शास्त्रों के अन्दर विहित है या निपिद्ध ? इस समस्या को सामान्यतया सुगम बनाने के लिए श्री मदुपासकदशांगसूत्र के प्राधार से इसकी सिद्धि हो सकती है क्योंकि कृपि-कार्य गृहस्थ के द्वारा ही किया जा सकता है किसी साधु, संन्यासी अथवा सर्वथा त्यागी पुरुषों द्वारा नहीं। अतः प्रस्तुत विपय की पुष्टि के लिये हमें अपने लिए आदर्श-खरूप धर्म-प्राण एवं मर्यादाजीवी श्रमण भगवान महावीर स्वामी के श्रावकों Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] के जीवन चरित की ओर दृष्टिपात करना युक्ति संगत होगा। श्रीमदुपासकदशांग सूत्र में जहाँ आनन्दादि श्रावकों का सविस्तर वर्णन किया है, वहाँ अानन्द श्रावक के त्यागप्रकरण में जब वे अपनी सम्पूर्ण परिग्रह सम्बन्धी इच्छाओं का परिमारण करते हैं; यह उल्लेख स्पष्ट पाता है कि "तदाएन्तरं खेत्त-वत्थुविहं परिमाणं करेन्ति" सूत्र पाठ से स्पष्ट सूचित होता है कि क्षेत्र-विधि की इच्छाओं का परिमाण-मात्र किया जाता है त्याग नहीं। यदि त्याग किया जाता होता अथवा क्षेत्र-विधि (कृपि-फर्म) निपिद्ध होती नो 'परिमाण' की जगह 'पञ्चक्खा' शब्द होता। क्योंकि जैन-शास्त्रों में कहीं किसी भी कार्य को निन्द्य कहा जाता है तो स्थान स्थान पर 'पच्चक्खाण' शब्द अवश्य दे दिया जाता है अतः कृषि-कर्म अवश्य विहित है, ऐसा निर्विवाद सिद्ध हो जाता है। श्रावक के १२ व्रतों में प्रत्येक व्रत के ५-५ तिचार हैं एवं सावधकार्य युक्त कार्यों का प्रत्येक व्रत में तत्तत्सम्बधी पापों के त्याग का श्रावक प्रत्याख्यान करता है परन्तु कृषि कर्म के प्रत्याख्यान का उल्लेख कहीं पर भी नहीं देखा जाता। इसका कारण यही कि गृहस्थधर्म के लिये कृपि-कर्म अनिवार्य, आवश्यक एवं सर्वथा ग्राह्य-व्यवसाय है। सातवे उपभोग व्रत में जहाँ २६ बोल की मर्यादा एवं तदतिरित प्रत्येक वस्तु का त्याग किया जाता है, वहां कृपि- सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। यदि कृपि-कर्म Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] पापमय एवं महारंभयुक्त होता तो जैनागमों में कहीं न कहीं अवश्य उसके लिये निषेधात्मक विवरण प्राप्त होता। कई एक शास्त्र के रहस्य को नहीं जानने वाले लोग एक बड़ी भारी शंका यह करने हैं कि जैनधर्म तो सूक्ष्म अहिंसा का उपदेशक एवं प्रतिपादक है, उसके विपरीत यदि हम कृषि करें तो उसमें कई एक स्थावर एवं त्रस (बेइंदिय, तेइंदिय, तथा चतुरिन्दिय ) जीवों की हिंसा होगी, साथ ही वृषभादि पंचेद्रिय प्राणियों को अधिक भार वहन करने से दुःख सहन करना होगा अतः ऐसा व्ययसाय जिसमें हिंसा की आदि से अन्त तक परम्परा हो, जैन-धर्म की दृष्टि से वह व्यवसाय तो त्याज्य ही है । परन्तु उपरोक्त शंका के मूल में ही विचारशून्यता है। यदि इस प्रकार से प्रत्येक व्यवसाय में सूक्ष्म हिंसा का विचार कर समाधि ले ली जाय तो प्राण-धारण एवं जीवन निवाह प्राणी मात्र के लिए दूभर हो जाय । उपरोक्त शंका करने वाले भाई कलम-शस्त्र से पंचेद्रिय प्राणियों की हिंसा करते वक्त किसी प्रकार का विचार नहीं करते, परन्तु कपि जैसे पवित्र उद्योग में हिंला सिद्ध करके लोक में हास्या. स्पद घनते हैं। दूसरी बात यह है कि यदि किसी अल्प पाप के परिणामस्वरूप महान् पुण्योपार्जन किया जा सकता हो विश्वर्तीमानव-मात्र का पोपण किया जा सकता हो, आश्चर्य है कि ऐसे पुनीत व्यावसायिक यज्ञ को निन्दित माना जाए । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८० ] यदि कृषि कर्म धर्म-शास्त्रों में उद्दिष्ट नहीं होता तो स्थानांग सूत्र के ९ वें स्थानक में ६७६ वे सूत्र में पुण्य के ९ मेद __ के 'अन्न पुण्ये, एवं वस्त्र पुण्ये, आदि जो भेद किये हैं, उन भेदों से स्पष्ट ध्वनित होता है कि अन्न एवं वस्त्रादि का दान देने से पुण्य होता है-पुण्य ही नहीं अपितु शुभ भावनाओं के योग से तीर्थङ्कर नाम कर्म तक उपार्जित किया जा सकता है। सुन्न पाठको ! अब बतलाइये कि कृषि ही न की जाय तो कृषि से उत्पन्न होने वाले फल रूप अन्न एवं वस्त्र की प्राप्ति तो स्वप्नवत् ही रहे या नहीं ? फिर उन पदार्थों के पुण्य की तो कल्पना ही वृथा है। पुण्य की वात तो दूर रही, अपना स्वयं का निर्वाह असंभव हो जाय । वर्तमान में भारतवर्ष में सैकड़ों मीले चल रही है, और करोड़ों रुपयों का कपड़ा विदेशी यंत्रों के आधार पर तैयार कर रही हैं। परन्तु यदि कृपक कृपि न करे, कपास न वोवे तो उन मिल मालिकों को अपने करोड़ों के व्यवसाय के लिये रुई कहाँ से प्राप्त हो ? वे अपने कारखाने किस आधार से चलावे ? नात्पर्य यह है कि कृपि किये विना न तो खाने को दाना पान हे न पहिनने को वस्त्र । अतः हमें वरबस इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ना है कि सम्पूर्ण विश्व में और खास कर इस कृषि प्रधान देश में जितने भी प्रधान एवं बड़े बड़े व्यवमाय हैं सभी ऋषिमूलक है, बिना कृषि के सभी विना प.के की गन्यवत् शुन्य है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] यदि इस विषय को ऐतिहासिक दृष्टि से विचारा जाय तो हमें इस कर्मभूमि के सर्व प्रथम राजा अथवा जन्मदाता भगवान ऋषभदेव के शासन काल को स्मरण करना होगा । यदि कृषि श्रावश्यक वस्तु न होती तो भगवान् ऋषभदेव जो कि जन्मतः तीन ज्ञान के धारक थे, जिन्हेंने विश्व को स्व-निर्वाहार्थ प्रत्येक कला एवं व्यवसाय की प्राथमिक शिक्षा दी थी - न देते । प्रभु ने जिम ७२ कलाओं का श्राविष्कार किया उसमें २६ वीं कला 'कृषि' कला ही है । अथवा यों कहें कि प्रभु ने सम्पूर्ण भारतीय कृषि - शास्त्र का मन्थन 'कृपिकला' के के रूप में कर दिखाया, जिससे कि वर्तमान काल में भी सम्पूर्ण भारतवर्ष का निर्वाह चल रहा है । प्रभु ने यह सिद्ध करके बतला दिया था कि कृषि ही मानव मात्र का जीवन है, चिना कृषि के गृहस्थाश्रम धर्म संचालन दुष्कर है । सम्प्रति भारतवर्ष में कतिपय प्रान्तों में जो क्षुधापीड़ितों के दुःखद आर्तनाद सुनने को मिल रहे हैं, उसका एक मात्र कारण भी मुझे तो कृषि का अभाव ही ज्ञात होता है । दलित वर्गने यह समझ कर कृषि करना कम कर दिया कि घड़े बड़े शहरों में मजदूरी, नौकरी तथा कुली आदि के धंधे करने से जीवन-निर्वाह सुलभ होगा, तथा धनिक वर्ग ने अर्थ-प्राप्ति में लुब्ध एवं गृद्ध वनकर अपने बड़े बड़े हिंसामूलक व्यवसायों की ओर, सट्टे श्रादि व्यापारों की ओर अथवा दूसरे शब्दों में एक मात्र श्रार्थ प्राप्ति की ओर, फिर वह चाहे किसी प्रकार क्यों न हो-मूल लक्ष्य दिया, जिसके फल स्वरूप प्राचीन Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 50] यदि कृषि कर्म धर्म - शास्त्रों में उद्दिष्ट नहीं होता तो स्थानांग सूत्र के ९ वें स्थानक में ६७६ वें सूत्र में पुण्य के ९ मेद के 'अन्न पुराये, एवं वस्त्र पुराये, आदि जो भेद किये हैं, उन भेदों से स्पष्ट ध्वनित होता है कि न एवं वस्त्रादि का दान देने से पुण्य होता है- पुण्य ही नहीं अपितु शुभ भावनाओं के योग से तीर्थङ्कर नाम कर्म तक उपार्जित किया जा सकता है । सुन पाठको ! अब बतलाइये कि कृषि ही न की जाय तो कृषि से उत्पन्न होने वाले फल रूप श्रन एवं वस्त्र की प्राप्ति तो स्वप्नवत् ही रहे या नहीं ? फिर उन पदार्थों के पुराय की तो कल्पना ही वृथा है । पुण्य की वात तो दूर रही, अपना स्वयं का निर्वाह असंभव हो जाय । वर्तमान में भारतवर्ष में सैकड़ों मीलें चल रही हैं, और करोड़ों रुपयों का कपड़ा विदेशी यंत्रों के आधार पर तैयार कर रही हैं; परन्तु यदि कृषक कृषि न करे, कपास न वोवे तो उन मिल मालिकों को अपने करोड़ों के व्यवसाय के लिये रुई कहाँ से प्राप्त हो ? वे अपने कारखाने किस आधार से चलावे ? तात्पर्य यह है कि कृषि किये बिना न तो खाने को दाना प्राप्त हो न पहिनने को वस्त्र । अतः हमें वरवस इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि सम्पूर्ण विश्व में और खास कर इस कृषि-प्रधान देश में जिनने भी प्रधान एवं बड़े बड़े व्यवसाय हैं सभी कृपिमूलक हैं, विना कृषि के सभी विना एके की नृत्यवत् शुन्य हैं । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१] यदि इस विषय को ऐतिहासिक दृष्टि से विचारा जाय तो हमें इस कर्मभूमि के सर्व प्रथम राजा अथवा जन्मदाता भगवान् ऋषभदेव के शासन-काल को स्मरण करना होगा। यदि कृषि आवश्यक वस्तु न होती तो भगवान् ऋषभदेव जो कि जन्मतः तीन ज्ञान के धारक थे, जिन्हेंोंने विश्व को स्व-- निर्वाहार्थ प्रत्येक कला एवं व्यवसाय की प्राथमिक शिक्षा दी थी-न देते । प्रभु ने जिम ७२ कलाओं का आविष्कार किया उसमें २६ वी कला कृषि' कला ही है। अथवा यों कहें कि प्रभु ने सम्पूर्ण भारतीय कृषि-शास्त्र का मन्थन 'कृषिकला' के के रूप में कर दिखाया, जिससे कि वर्तमान काल में भी सम्पूर्ण भारतवर्ष का निर्वाह चल रहा है। प्रभु ने यह सिद्ध करके बतला दिया था कि कृषि ही मानव-मात्र का जीवन है, विना कृषि के गृहस्थाश्रम धर्म संचालन दुष्कर है।। सम्प्रति भारतवर्ष में कतिपय प्रान्तों में जो तुधापीड़ितों के दुःखद आर्तनाद सुनने को मिल रहे हैं, उसका एक मात्र कारण भी मुझे तो कृषि का अभाव ही ज्ञात होता है। दलित वर्गने यह समझ कर कृषि करना कम कर दिया कि बड़े बड़े शहरों में मजदूरी, नौकरी तथा कुली आदि के धंधे करने ले जीवन-निर्वाह सुलभ होगा, तथा धनिक वर्ग ने अर्थ-प्राप्ति में लुब्ध एवं गृद्ध वनकर अपने बड़े बड़े हिंसासूलक व्यवसायों की ओर, सट्टे आदि व्यापारों की ओर अथवा दूसरे शब्दों में एक मात्र प्रार्थ प्राप्ति की ओर, फिर वह चाहे किसी प्रकार क्यों न हो-मूल लक्ष्य दिया, 'जेसके फल स्वरूप प्राचीन Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८ ] श्रार्य-संस्कृति की विनाश रूप अवनति अपनी आँखों हमें अपने कमनसीब से देखनी पड़ती है । यदि प्रत्येक भारतीय प्रजा अपने मूल व्यवसाय कृषि को कायम रखती हुई अन्य पेशों की ओर ध्यान देती तो यह ज्यादा सफल, सम्पन्न तथा सविशेष समुन्नत होती । फिर चाहे भारत सरकार करोड़ों क्या अब सन धान तक इस भारत वसुन्धरा से विदेशों को ले जाती तो भी हमारे को भूखों मरने की नौबत न आती । हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि प्राचीन काल में जब यही श्रार्यभूमि स्वर्ण भारत नाम से प्रख्यात थी, वह केवल इसी कृषिकर्म के वलपर । क्योंकि वर्तमान विज्ञानवाद एवं भौतिकवाद उस समय प्रचलित नहीं थे । प्रस्तुत विषय पर साम्पत्तिक शास्त्र को लक्ष्य में रख कर विचार किया जाय तो यह निष्कर्ष निकलता है कि कृषि ही किमी गृहस्थ की सच्ची सम्पत्ति है । श्रानन्दादि श्रावकों ने अपनी सम्पत्ति के चार विभाग किये थे । उसमें चतुर्थांश कृषि के लिए भी रखा था - वह काल इतना सुखद था कि जीवन निर्वाह तो मानव मात्र के लिये सामान्य बात थी फिर भी श्रानन्द श्रावक जैसे महान् श्रावकों ने अपनी सम्पत्ति का चौथा हिंसा कृषि के लिए रखा था उसमें भावी प्रजा के कल्याण का भी अवश्य ध्यान रखा गया होगा ऐसा विना स्वीकार किये हमारी बुद्धि, संतोष नहीं मानती । श्रापत्ति काल में दुर्भिक्षादि में धातुम्प सम्पत्ति सोना चांदी, स्थावर सम्पत्ति मकान भवनादि, तथा वस्त्र रूप सम्पत्ति मनुष्य को Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८३ ] आश्रय भूत नहीं होती, उसके समीप यदि अन्न भण्डार की कमा के सिवाय अन्य सभी प्रकार की सम्पत्तियाँ पुर्ण रूपेण विद्यमान हों, परन्तु ऐसे समय में वे सभी सम्पत्तियाँ नगण्य है। प्रत्येक विचारवान् मानवी यह सोच सकता है कि ऐसे समय में वास्तविक सम्पत्ति क्या है ? अस्तु राजनैतिक दृष्टिकोण से यह ज्ञात होता है कि विना कृषि के किसी भी राज्य की नींव मजबूत होना एवं उस देश का धनधान्यसम्पन्न होना मुश्किल है। यदि कृपि न की जाय तो "शप्ठांशमुर्त्या इव क्षितायाः" के नियमानुसार राज्य को खेती के कर एवं जगान की प्राय भी नहीं हो सकती। राजनीति तो यहाँ तक मानने को बाध्य करती है कि सच्चा अन्नदाता कृपक है एवं सच्ची सम्पत्ति भी कृषि द्वारा उपाजिन धन-धान्यादिक ही है। कृषि विषय को शास्त्रविहित सिद्ध करने के लिए यदि आध्यात्मिक दृष्टिकोण लिया जाय तो विदित होता है कि कृषि करने वाले के हृदय में स्वभावतः उदारता, हृदय की विशालता, प्रकृति-सारल्य, निष्कपटपना आदि आत्मा के स्वाभाविक धर्मों का यथेए रूप से नैसर्गिक विकास होता है। अन्य व्यवसायियों में उपरोक्त गुणों का पाना तो ठीक परन्तु तद्वि. षयक कल्पना भी असंगत है। जिस प्रकार पूज्य बापूजी का चरखा सद्विचारों का प्रेरक, एक ध्यानतानुप्राणक, स्वावलम्बन का शिक्षक तथा । परतंत्रता-पाश से मुक्ति दिलाने का मूल मन्त्र है उसी प्रकार Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] सभी गुण कृषि में भी हैं । यदि कृषि-प्राधन भारतवर्ष सचमुच एक वार पुनः कृषिप्रधान ही बन जाय, भारतीय प्रजा अर्थप्राप्ति में लुग्ध वनकर भारत के प्रधान नगरों में घृणित से घृणित व्यापारों में संलग्न है, उन्हें छोड़ कर कृषि को अपने गले का हार बनावें तो अपने वास्तविक धन एवं धर्म की थेट रूप से रक्षा कर सकते हैं। अपने नेत्रों के समक्ष होने वाले मूक पशुओं के वध को प्रत्यक्ष ही बचा सकते हैं । इस प्रकार पशुधन की रक्षा के साथ अहिंसा का श्राचरण करते हुए पुनः विश्व को जैनधर्म का पाठ सिखा सकते हैं । एक विद्वान् के शब्दों में कहा जाय तो "जो संस्कृति धर्म एवं नीति का अनुसरण कर शरीर, मन एवं श्रात्मा के विकास में सहायक होती है वही असल संस्कृति है । हिंदुस्तान में जब जब इस संस्कृति की विजय हुई, तब वहॉ सुख, समृद्धि और श्रानन्द छाया रहता था, भगवान् ऋषभदेव, रामचन्द्र, महावीर इस संस्कृति के सुन्दर स्मारक है ।" उक्त कथन के आधार पर हमें कृपिव्यवसाय ही ऐसा दृग्गोचर होता है जहाँ धर्म एवं नीति का अनुसरण करते हुए सांस्कृतिक एवं श्रात्मिक विकास हो । अतः कृषि व्यवसाय अपेक्षाकृत निरद्य एवं निर्दोष है। आत्मगुणों का पोषक है-जब कि अन्यसभी व्यवसाय शोषक । व्यावहारिक afg से यह कहा जा सकता है कि यदि सभी व्यापारों में कई एक प्रकार के विघ्न एवं संकट आते हैं, आर्थिक कठिनाइयाँ भी उपस्थित होती हैं- परन्तु एक कृषि रूप व्यापार ही ऐसा व्यापार है कि विना पूंजी के भी Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरीव से गरीव एवं दलित से दलित मानव इसको कर सकता है एवं दुनिया में अपना व्यवहार चला सकता है। यह व्यावहारिक कार्य है इसमें कोई बड़ी कलाओं की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है अतः उपरोक्त सभी दृटियो से कृषि उत्तम है। कुछ लोग जो कि अन्धश्रद्धा अथवा अविचार के शिकार बने हुए हैं. इस विषय में एक आड़ यह रखते हैं कि श्रावक के आठवें अनर्थादण्ड के ५ अतिचारों में 'पावकम्मोचएसे' नामक एक अनर्थ दण्ड है-तथा उसका अर्थ सामान्य तौर पर वे अपनी स्थूल वुद्धि से यह करते हैं कि ऐसा कोई भी कार्य जिसमें पाप लगने का अन्देशा हो नहीं करना चाहिये-ऐसा उनके मत से इस पाठ से ध्वनित होता है। परन्तु 'आवश्यक सुत्र' की टीका में देखा जाय तो इस विषय का किंचिन्मात्र भी उल्लेख नहीं। दुनिया की पच्चीसों क्रियाओं को शास्त्रकार ने अनर्थ दण्ड तथा पाप रूप परिगणित किया है परन्तु कृषि अथवा इससे सम्बन्ध रखने वाले किसी कार्य को अनर्थ दण्ड अथवा पापरूप मानने का कोई हेतु शास्त्र में दहिगोचर नहीं होता । इसकी सिद्धि का एक बहुत बड़ा प्रमाण यदि शोधा जाय तो यह भी कहा जा सकता है चरम तीर्थकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी की उपस्थिति में कई एक उद्यान रहते थे-नाना प्रकार के फल फूलों की उत्पत्ति के साथ साथ कृपि भी की जाती थी, सहस्त्रानं वाग एवं कई प्रकार के उद्यानों का वर्णन प्रत्येक शास्त्र में श्राता है- यहाँ तक कि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८६] उन उद्यानों में स्वयं प्रभु महावीर के ठहरने का वर्णन स्थान स्थान पर पाता है यदि यह निन्य कर्म होता तो प्रथम तो प्रभु इसके करने में दोप है इस बात का वर्णन अवश्य करते, दुसरे स्वयं निरवद्य स्थान देकर उन उद्यानों में नहीं ठहरते । क्योंकि उद्यान एवं सहस्रान वन भी तो एक प्रकार के खेती के ही अंग हैं। यदि कोई शंका करे कि प्रभु के तो अतिशय होते हैं अतः उनको इसमें कोई दोष नहीं लग सकता तो प्रभु के पश्चात् उनके शिष्य सुधर्मास्वामी भी तो इसी प्रकार के उद्यानों में विचरण करते थे। यदि यह कर्म निन्दनीय होता तो क्या उन महापुल्पों को अपनी भावी सन्तति को हित-बुद्धि सुझाने का तथा उसकी कल्याण कामना का कुछ भी खयाल न रहा होगा। अतः बुद्धि के व्यायाम एवं प्रस्तार से इसी निर्णय पर पहुँचना पड़ता है कि कृषि-कर्म जैन-धर्म के प्रत्येक दृष्टिकोण से अनुकूल एवं हितावह है। 'आवश्यक सूत्र में जहाँ श्रावक के कार्य कार्यो का वर्णन पाया है वहाँ कपि यकार्य है ऐसा एक भी वाक्य उपलब्ध नहीं होता । जैसा कि निम्न गाथा से स्पष्ट होगा इंगाली, वण, साडी, भांडी फोडी सुवजए कम्म । वाणिज' चेव य दन्तं. लक्स रस केस विस विसयं ॥ १ ॥ एवं खु जंतपिल्लण कम्मं, निल्छणं च दवदाणं; सरदहतलाय सोसं, असइपोमं च वजिज्जा ॥ २ ॥ अर्थात् उक्त २५ कर्मादान जिससे जैन धर्मानुसारी श्रावक को भारी कमी का बन्धन होता है सबेथा त्याज्य है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८७ ] सुश पाठको! सोचिये, भाड़े की कमाई जैसे कार्य जो कि कर्मादान में गिने गये हैं- गाड़ियों के धन्धे आदि सभी व्यवसाय १५ महान् पाप कार्यो में प्रभु ने बतलाये हैं, परन्तु क्या कृषि को ऐसी पाप रूप मानी है ? आश्चर्य है कि हमारे वर्तमान श्रावक समाज में उपरोक्त व्यवसायों में जो कि धर्मशात्र की दृष्टि से निन्दित हैं—पाये जाते हैं परन्तु खेती जो कि कर्तव्य कार्य है--जिसले धन की प्राप्ति एवं धर्म की रक्षा होती है बहुत अल्पांश में अथवा यों कहें कि नगण्य रूप में दृष्टिगोचर होती है । इस कृषि-कर्म के त्याग के साथ हम न केवल जैन धर्म के प्रादों का नाश कर रहे हैं, अपितु सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति को रसातल में ले जाने में अपना पूर्ण सहयोग दे रहे हैं। उपसंहार-हा! हमारे जिन पूर्वजों ने कृषि के बल पर अपनी धवल कीर्ति एवं उज्ज्वल यश भूमण्डल में प्रसारित किया था, इस पवित्र यशानुष्ठान से अमरता प्राप्त की थी उसी व्यवसाय को तिलांजली देकर अपने पूज्य पूर्वजों के नाम पर कलंक-कालिख पोतले हुए हमें किंचित् भी लज्जा का अनुभव नहीं होता। १८ पापस्थानकों का हम सेवन न करें तो हम अपने में मनुष्यत्व नहीं समझते, १५ कर्मादानों को कार्य रूप में हम न कर दिखावें तो हम मनुष्य जीवन की निरर्थकता सी अनुभव करते हैं। भारतीय संस्कृति के विनाशक वर्तमान विज्ञान-शास्त्र के पीछे बुरी तरह से पड़ कर ज्यादा से ज्यादा ऐश नाराम एवं भोग विलास की लिप्सा से अभोग्य भोगों को भोग कर अकर्स भूमि के जीवों की भॉति अकर्मण्य बन जाने में अपना अहोभाग्य समझते हैं एवं अपने भाग्य की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं। यह सब हमारे भयंकर पतन की प्राथमिक सूचना ही है। ऐश पारा कर्म भूमि समझते है Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य गांधी जी समय समय पर एक ही सन्देश सूत्र सुनाने हैं कि-"भारतीय संस्कृति का पुनरुद्धार करना ही होगा-एक बार उसका पूर्णतया मन्थन करना ही होगा तभी भारतीय संस्कृति की उज्जवलता के साथ मानव-संस्कृति नूतन रूप में निर्मित होगी। भारतवर्ष वैभवविलास-प्रधान की जगह पुनः धर्म प्रधान एवं कृषि-प्रधान बनेगा तभी वह अपनी असली स्थितिमत्ता को प्राप्त करेगा।" वस्तुतः कृषि एवं प्राध्यात्मिकता का अन्योन्य घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर के जैनधर्म की सच्ची अहिंसा एवं यथार्थ तत्वज्ञान का परिचय विश्व को करा देने से ही विश्व का यथार्थ कल्याण हो सकता है। ऐसा होने से सम्पूर्ण जैन संस्कृति भारतीय संस्कृति को एवं भारतीय संस्कृति मानव संस्कृति (विश्व संस्कृति) को परिस्कृत, परिमार्जित एवं समुज्ज्वल बना देगी। तथा लोक स्वावलम्बन के यथार्थ सूत्र से परिचित होगा ५: विश्ववन्धुत्व की वास्तविक भावना जागृत होगी। अति संक्षेप में यही जैनधर्म एवं कृषि-कर्म का स्वरूप है तथा इसी में प्रत्येक जैन नामधारी की सार्थकता एवं यथाथता है। विनीत लेखकःकन्हैयालाल दक समाप्त Page #103 -------------------------------------------------------------------------- _