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सभी गुण कृषि में भी हैं । यदि कृषि-प्राधन भारतवर्ष सचमुच एक वार पुनः कृषिप्रधान ही बन जाय, भारतीय प्रजा अर्थप्राप्ति में लुग्ध वनकर भारत के प्रधान नगरों में घृणित से घृणित व्यापारों में संलग्न है, उन्हें छोड़ कर कृषि को अपने गले का हार बनावें तो अपने वास्तविक धन एवं धर्म की थेट रूप से रक्षा कर सकते हैं। अपने नेत्रों के समक्ष होने वाले मूक पशुओं के वध को प्रत्यक्ष ही बचा सकते हैं । इस प्रकार पशुधन की रक्षा के साथ अहिंसा का श्राचरण करते हुए पुनः विश्व को जैनधर्म का पाठ सिखा सकते हैं । एक विद्वान् के शब्दों में कहा जाय तो "जो संस्कृति धर्म एवं नीति का अनुसरण कर शरीर, मन एवं श्रात्मा के विकास में सहायक होती है वही असल संस्कृति है । हिंदुस्तान में जब जब इस संस्कृति की विजय हुई, तब वहॉ सुख, समृद्धि और श्रानन्द छाया रहता था, भगवान् ऋषभदेव, रामचन्द्र, महावीर इस संस्कृति के सुन्दर स्मारक है ।" उक्त कथन के आधार पर हमें कृपिव्यवसाय ही ऐसा दृग्गोचर होता है जहाँ धर्म एवं नीति का अनुसरण करते हुए सांस्कृतिक एवं श्रात्मिक विकास हो । अतः कृषि व्यवसाय अपेक्षाकृत निरद्य एवं निर्दोष है। आत्मगुणों का पोषक है-जब कि अन्यसभी व्यवसाय शोषक ।
व्यावहारिक afg से यह कहा जा सकता है कि यदि सभी व्यापारों में कई एक प्रकार के विघ्न एवं संकट आते हैं, आर्थिक कठिनाइयाँ भी उपस्थित होती हैं- परन्तु एक कृषि रूप व्यापार ही ऐसा व्यापार है कि विना पूंजी के भी