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________________ [ ३ ] के साथ ही होता तो धर्मप्रवर्तक श्रीमहावीर स्वामी स्वयं ही संघ की स्थापना क्यों करते ? सचाई यह है कि संघ या समाज के विना वैयक्तिक जीवन निभ नहीं सकता। अतएव धर्मशास्त्र में जहाँ श्रात्मधर्म (व्यक्तिगतधर्म) का निरूपण किया गया है, वहीं राष्ट्रधर्म, संघधर्म आदि की भी प्ररूपणा की गई है। आशय यह है कि धर्म का संबंध व्यक्ति और समाज दोनों के साथ है। अतएव किसी धार्मिक आचार का विचार करते समय हमें समाजतत्त्व को भूलना नहीं चाहिए । आत्मा अमूर्तिक है, अतीन्द्रिय है, यह सब सही है, लेकिन इससे भी अधिक प्रत्यक्ष सत्य यह है कि हमें आत्मा की उपलब्धि शरीर के साथ ही होती है। हम शरीर के बिना जीवित नहीं रह सकते । जो अशरीर है उन्हें धर्म की आवश्यकता नहीं है । जिनके लिए धर्म है वे सब सशरीर हैं। और शरीर ऐसी चीज़ नहीं है, जिसका स्वेच्छापूर्वक चाहे जब त्याग कर दिया जाय । शरीर धर्मसाधना का भी प्रधान अंग है। शरीर का निर्वाह करना हमारे जीवन की एक ऐसी मूलभूत आवश्यकता है. जिसकी उपेक्षा कोई महान् से महान् अात्मनिष्ठ मुनि भी नहीं कर सकता। , चाहे कोई कितना ही सयमशील क्यों न हो, शरीरनिर्वाह के लिए अन्न-वस्त्र की आवश्यकता उसे भी रहती है। वस्त्रों के अभाव में भी कदाचित् जीवित रहा जा सकता है, ५ ठाणांग सूत्र, ठाणा १० वां
SR No.010399
Book TitleKrushi Karm aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherShobhachad Bharilla
Publication Year
Total Pages103
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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