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यदि कृषि कर्म धर्म - शास्त्रों में उद्दिष्ट नहीं होता तो स्थानांग सूत्र के ९ वें स्थानक में ६७६ वें सूत्र में पुण्य के ९ मेद के 'अन्न पुराये, एवं वस्त्र पुराये, आदि जो भेद किये हैं, उन भेदों से स्पष्ट ध्वनित होता है कि न एवं वस्त्रादि का दान देने से पुण्य होता है- पुण्य ही नहीं अपितु शुभ भावनाओं के योग से तीर्थङ्कर नाम कर्म तक उपार्जित किया जा सकता है । सुन पाठको ! अब बतलाइये कि कृषि ही न की जाय तो कृषि से उत्पन्न होने वाले फल रूप श्रन एवं वस्त्र की प्राप्ति तो स्वप्नवत् ही रहे या नहीं ? फिर उन पदार्थों के पुराय की तो कल्पना ही वृथा है । पुण्य की वात तो दूर रही, अपना स्वयं का निर्वाह असंभव हो जाय ।
वर्तमान में भारतवर्ष में सैकड़ों मीलें चल रही हैं, और करोड़ों रुपयों का कपड़ा विदेशी यंत्रों के आधार पर तैयार कर रही हैं; परन्तु यदि कृषक कृषि न करे, कपास न वोवे तो उन मिल मालिकों को अपने करोड़ों के व्यवसाय के लिये रुई कहाँ से प्राप्त हो ? वे अपने कारखाने किस आधार से चलावे ? तात्पर्य यह है कि कृषि किये बिना न तो खाने को दाना प्राप्त हो न पहिनने को वस्त्र । अतः हमें वरवस इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि सम्पूर्ण विश्व में और खास कर इस कृषि-प्रधान देश में जिनने भी प्रधान एवं बड़े बड़े व्यवसाय हैं सभी कृपिमूलक हैं, विना कृषि के सभी विना एके की नृत्यवत् शुन्य हैं ।