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प्रमत्त योगधी थतो प्राण वध ते हिंसा. ज्यारे रागद्वेषवाली सावधान प्रवृत्तिश्री प्राणवध करवामां आवे त्यारे ते हिंसा गणाय. प्रमत्त योग ग्रने प्राबध ये कारणो जरा चर्चा मागी ले छे
जैतो हिंसा - श्रहिंसानो विचार स्थूलदृष्टिभेज कर्यो नथी. हिंसाना विचारको छेक उंडाण सुधी पहोंची गया श्रने हिंसार्नु वीज स्थूल कार्यमां नहिं पण माणसमां रहेली प्रशुभ घासनाओमां जोयुं. ज्यारे प्रमत्तयोग जनित प्राविध थाय त्यारे ज हिंसा - जे सर्वथा वर्त्य - थाय. हिंसा करनारना मनमां जेनी हिंसा करवी होय तेने हणवानी, तेना तरफ राग, द्वेपनी भावना होय, अने ने वश थई ने जो ग्रे प्राणवध आचरे तो जरूर में हिंसा थई गणाय ने हिंसा वर्ज्य थे. आाथी थेक प्रश्न सहेजे उठे छे के अनिवार्य थती प्राणहानि ने हिंसा कहेवी के नहिं ? प्रलवत्त अनिवार्य होवा - थी थे अहिंसा सम्पूर्ण रीते हिंसा मटती नथी, परन्तु हिंसा वाधक नथी. वीजी वाजु जोइये - एक माणसे वीजा ऊपर हमला कर्यो - रागद्वेपना वश थई ने तेनुं खून करवाना ईरादा थी ( जेने कायदानी भाषामां मेन्सरीया - Mensrea कहे छे ) पण तेनुं खून न थई शक्युं छतां मे प्राणवध नी कोटिनी हिंसाज थई. कारण के श्रे प्रमत्तजनित हती. प्रमत्तयोग वगरनी हिंसाने द्रव्य हिंसा कहेवामां आवे छे, अनेोना छे के तेनुं दोपपशुं प्रवाधित नधी. येथी उलहुँ, प्रमत्तयोग जनित हिंसाने भावहिंसा कहेवामां आवे छे, जेनुं दोप
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