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nij स्वाधीन होवाथी त्रये कालमां वाधित रहे छे,” (तत्वा र्थसूत्र - पंडित सुखलाल जी ) श्रप्रमादी माणस सम्पूर्ण सावधान पणे विचरतो होय, हालतां, चालतां बोलतां जे जीव मरे छे, ते हिंसा छे परन्तु वाधित नथी ज, छाने अथी उल्टुं प्रमादी माणस जे प्रवृत्ति आचरे छे तेमां प्रमत्तयोग थाय ज अहिंसा बाधक छे ज.
खरी हिंसा तो संकल्पथी करेली हिंसा छे. जैनधर्ममां ग्रेनां घण उदाहरणो पण छे, खाटकी कालसौकरिक नो प्रख्यात दाखलो ल्यो- अणे खरेखर जीवतां पाडाने कुत्रामां हराया न हतां, छतां, ग्रेनी दुष्ट भावना एज अना कर्मने हिंसक स्वरूप आपवा बस हती. बीजु उदाहरण --
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
क्षणेन नरक याति, जीवस्तण्डुलमत्स्यवत् ॥
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क मोटु मत्स्य हतुं, ने अनी अांखनी कीकीमां अक वीजुं नानुं मत्स्य हतुं, पेला मोटा मत्स्यना सदाय खुल्ला रहेता मुखमा केटलाय जीवो धावता श्रने चाल्या जता, परन्तु मत्स्य जीवोने खातुं नहिं, पेलुं नानुं मत्स्य विचार करतुं के जो हुं मोटुं मत्स्य होस तो बधा जीवोने खाई जात, श्रा दुष्ट संकल्प करवाथी ज ग्रे नरके गयुं.
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टले संकल्प करीने जे हिंसा श्राचरवामां आवी, होय, ते हिंसा दूपित छे, जे माणूस सावधानीथी वर्ततो होय वैठवा उठवामां ईर्यासमितिनुं सम्पूर्ण पालन करतो होय छताय जो.
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