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म्रावकधर्म के अधिक अनुकूल है। सट्टे के साथ, जो एक प्रकार का जुया ही है, कृषि की तुलना की जा चुकी है । जुया को धर्मशास्त्रों से त्याज्य ठहराया है। मृदखोरी का धन्धा भी प्रशस्त नहीं है। शास्त्रों में वर्णिन कोई अादर्श श्रावक यह धन्धा नहीं करता था। प्राचार्य सोमदेव सरि ने लिखा है
पशुधान्यहिरण्यसम्पदा राजते.शोभते, इति राष्ट्रम् । अधीत-जो देश पशु, धान्य और हिरगय से सुशोभित हाता है. वही सच्चा राष्ट्र कहलाता है। यहाँ पशुओं और घान्य को प्रथम स्थान दिया गया है और उसके बाद हिरण्य (चांदी-लोने) को। सा करके प्राचार्य ने यह मूचित कर दिया है कि किसी भी देश की प्रधान सम्पत्ति पशु और धान्य है, क्योंकि उनसे जीवन की आवश्यकताएँ सानात् रूप से पूर्ण होती है। जेवस्तु जीवन की वास्तविक अावश्यकताओं की साक्षात् पूर्ति करती है, उसका उपार्जन करने वाला सामाजिक एवं राष्ट्रीय दृष्टि से समाज एवं राष्ट्र का उपकार करता है। वह जगत् को अपनी ओर से कुछ प्रदान करता है, अतएव वह जगत् का वोझ नहीं है वरन् माझ उठाने वालों का हिस्सेदार है। वह समाज से कुछ लेता है तो उसके वदले समाज को कुछ देता भी है। अनाज पैदा करने वाला किसान दूसरों का भार नहीं है, बल्कि दूसरों का भार संभालता है। वह अनेक मनुप्यों को अन्न के रूप में जीवन दे रहा